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________________ ज्ञानाधिकार ५ निश्चय व्यवहार समन्वय [परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि शास्त्रज्ञान का कोई मूल्य ही नहीं । उसके उपकार को किसी प्रकार भी भुलाया नहीं जा सकता।] जिस प्रकार डोरा पिरोयी सई कचरे में पड़ जाने पर भी नष्ट नहीं होती, उसी प्रकार शास्त्रज्ञानयुक्त जीव संसार में रहता हुआ भी नष्ट नहीं होता। ८७. सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥ दशवै० । ४.११ तु०-सूत्र० पा०।५-६ श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम् । उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यच्छ्यस्तत् समाचरेत् ॥ शास्त्र सुनने से ही श्रेय व अश्रेय का ज्ञान होता है। सुनकर जब ये दोनों जान लिये जाते हैं, तब ही व्यक्ति अधेय को छोड़कर श्रेय का आचरण करता है। ८८. अध्यात्मशास्त्रहमाद्रिमथितागमोदधेः । भूयांसि गुणरत्नानि, प्राप्यन्ते विबुधैर्न किम् ॥ अध्या० सा० । १.२० अध्यात्म-शास्त्र रूपी मन्दराचल से आगमोदधि का मंथन करने पर पण्डित जन अनेक गुण-रत्नों को आदि लेकर क्या कुछ प्राप्त नहीं कर लेते? ज्ञानाधिकार ५ ज्ञानाभिमान-निरसन सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टाः जानंतो बहुविधानि शास्त्राणि । आराधनाविरहिताः भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ॥ सम्यक्त्व-रत्न से भ्रष्ट व्यक्ति केवल शब्दों को ही पढ़ता है। इसलिए अनेकविध शास्त्र व वेद-वेदांग आदि पढ़ लेने पर भी वह उनके अर्थज्ञान से शून्य ही रह जाता है । आराधना से रहित वह शास्त्रीय जगत् में ही भ्रमण करता रहता है, ( और आध्यात्मिक जगत् के दर्शन कर नहीं पाता)। ९०. सुत्तं अत्थनिमेणं, न सुत्तमेत्तेण अत्थपडिवत्ती। अत्थगई उण णयवाय-गहणलीणा दुरभिगम्मा ।। ९१. तम्हा अहिगयसुत्तेण, अत्थसंपायणम्मि जइयव्वं । आयरियधीरहत्था, हंदि महाणं विलंबेन्ति ।। सन्मति तर्क । ३.६४-६५ तु०प० प्र० । २.८४, का० अ०। ४६६ सूत्रमर्थनिमेणं न सूत्रमात्रेणार्थप्रतिपत्तिः। अर्थगतिः पुनः नयवादग्रहणलीना दुरभिगम्या । तस्मादधिगतसूत्रेणार्थसम्पादने यतितव्यम् । आचार्याः धीरहस्ताः, हन्त महाज्ञां विडम्बयन्ति ॥ इसमें सन्देह नहीं कि सूत्र ( शास्त्र ) अर्थ का स्थान है, परन्तु मात्र सत्र से अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं होती। अर्थ का ज्ञान विचारणा व तर्कपूर्ण गहन नयवाद पर अवलम्बित होने के कारण दुर्लभ है। अतः सूत्र का ज्ञाता अर्थ प्राप्त करने का प्रयत्न करे, क्योंकि अकुशल एवं धृष्ट आचार्य ( शास्त्र को पक्ष-पोषण का तथा शास्त्रज्ञान को ख्याति व प्रतिष्ठा का माध्यम बनाकर ) सचमुच धर्म-शासन की विडम्बना करते हैं। ५. निश्चय व्यवहार ज्ञान-समन्वय [यद्यपि शास्त्रज्ञान की महिमा का वर्णन कर दिया, तथापि इस विषय में इतना विवेक रखना आवश्यक है-] ८९. सम्मत्तरयणभट्ठा, जाणता बहुविहाई सत्थाई। आराहणाविरहिया, भमंति तत्थेव तत्थेव ।। तु०-अध्या० उप० । २.४ ६. ज्ञानाभिमान-निरसन ९२. जह जह बहुस्सुओ सम्मओ य, सिस्सगणसंपरिवुडो य । अविणिच्छओ य समये, तह तह सिद्धतपडिणीओ।। सन्मति तर्क। ३.६६ तु० यो० सा० अ०। ७.४४ ____ Jan Education inte.k० पा०।४ For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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