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________________ मंगल-सूत्र मिथ्यात्व-अधिकार ( अविद्या योग) मिथ्यात्व का ही यह दुर्लध्य प्रभाव है कि व्यक्ति को अपना हित नहीं भाता। दुःख को ही सुख मानते हुए वह न जाने कब से इस भवाटवी में भटक रहा है। ज्यों-ज्यों छूटने का प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों अधिक अधिक फंसता चला जाता है। साहू लोगुत्तमा। केवलीपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो॥ (चत्तारि सरणं पब्वज्जामि) अरहते सरणं पवज्जामि। सिद्धे सरणं पव्वज्जामि। साहू सरणं पव्वज्जामि । केवलीपण्णतं धम्म सरणं पध्वज्जामि ।। आवश्यक सूत्र । ४.१ तु-भा० पा०। १२२ ( चत्वारि मंगलम् ) अर्हन्तः मंगलम्। सिद्धाः मंगलम्। साधवः मंगलम्। केवलिप्रज्ञप्तः धर्मः मंगलम् । ( चत्वारि लोकोत्तमाः) अर्हन्तः लोकोत्तमाः । सिद्धाः लोकोत्तमाः। साधवः लोकोत्तमाः। केवलिप्रज्ञप्तः धर्मः लोकोत्तमः ॥ ( चत्वारि शरणं प्रपद्ये) अहंतः शरणं प्रपद्ये । सिद्धान् शरणं प्रपद्ये। साधन शरणं प्रपद्ये। केवलिप्रज्ञप्तं धर्म शरणं प्रपद्ये ॥ अर्हन्त, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म, ये चारों ही मंगल है तथा लोक में उत्तम है। में इन चारों की शरण को प्राप्त होता हूँ। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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