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________________ धर्माधिकार ११ ११२ उत्तम मार्दव १०. उत्तम मार्दव (अमानित्व) २७०. कुलरूवजादिबूद्धिसु, तवसुदसीलेसु गारवं किंचि । जो ण वि कुव्वदि समणो, मद्दवधम्म हवे तस्स ॥ बा० अ०। ७२ तु० - उत्तरा० । २९ सूत्र ४९ कुलरूपजातिबुद्धिषु, तपश्रुतशीलेषु गर्व किंचित् । य: नैव करोति श्रमणः, मार्दवधर्म भवेत् तस्य ॥ आठ प्रकार के मद लोक में प्रसिद्ध हैं-कूल रूप व जाति का मद, ज्ञान तप व चारित्र का मद, धन व बल का मद । जो श्रमण आठों ही प्रकार का किचित् भी मद नहीं करता है, उसके उत्तम मार्दव धर्म होता है। २७१. जो अवमाणकरणं दोसं. परिहरइ णिच्चमाउत्तो। सो णाम होदि माणी, ण गुणचत्तेण माणेण ॥ भ० आ० । १४२९ योऽपमानकरणं दोष, परिहरति नित्यमायुक्तः । सो नाम भवति मानो, न गुणत्यक्तेन मानेन । जो पुरुष अपमान के कारणभूत दोषों का त्याग करके निर्दोष प्रवृत्ति करता है, वही सच्चा मानी है। परन्तु गुणरहित होकर भी मान करने से कोई मानी नहीं कहा जा सकता। २७२. असई उच्चागोए असई णीयागोए, णो हीण णो अइरित्ते । णो पीहए इह संखाए, को गोयावाई को माणावाई ॥ आचारः २.३ सूत्र १, तु० = भ० आ० । १०२७-२८ धर्माधिकार ११ उत्तम आर्जव सोऽसकृदुच्चोत्रे असकृन्नीचर्गोत्रे, नो हीनः नोऽप्यतिरिक्तः । न स्पृहयेत् इति संख्याय, को गोत्रवादी को मानवादी॥ यह जीव अनेक बार उच्च गोत्र में उत्पन्न हो चुका है, और अनेक बार नीच गोत्र में जन्म ल चुका है। परन्तु वस्तुतः न तो आज तक यह कभी हीन हुआ है और न कभी कुछ वृद्धि को ही प्राप्त हुआ है। अतः हे थमण! तू उच्च जाति आदि को प्राप्त करने की इच्छा न कर। क्योंकि इस तथ्य को जानकर भी कौन पुरुष उच्च गोत्र की इच्छा अथवा उसका मान करेगा? ११. उत्तम आर्जव (सरलता) २७३. जो चितेइ ण वंक, ण कुणदि वंक ण जंपदे वंकं । ण य गोवदि णियदोस, अज्जवधम्मो हवे तस्स ।। का० अ०।३९६ तु० - उत्तरा०।२९ सूत्र ४८ यः चिन्तयति न वक्र, न करोति वकं न जल्पति वक्रम् । न च गोपयति निजदोषम, आर्जवधर्मः भवेत्तस्य । जो मुनि मन से कुटिल विचार नहीं करता, वचन से कुटिल बात नहीं कहता, न ही गुरु के समक्ष अपने दोष छिपाता है, तथा शरीर से भी कुटिल चेष्टा नहीं करता, उसके उत्तम आर्जव धर्म होता है। २७४. जह बालो जंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ । तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को उ ॥ महा० प्रत्या०।२२ तु० = बा० अणु०।७३ यथा बालो जल्पन, कार्यमकायं च ऋजुकं भणति । तत्तथाऽलोचयेन्मायामद - विप्रमुक्त एव । जिस प्रकार बालक बोलता हुआ कार्य व अकार्य को सरलता से कह देता है, उसी प्रकार सरलता से अपने दोषों की आलोचना करनेवाला साधु माया व मद से मुक्त होता है। For Private & Personal use only. १. सम्यग्दृष्टि किसी भी प्रकार का गर्व नहीं करता। वह अपने को रण के समान मानता है।--दे० गा०६२ Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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