SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्माधिकार ११ १०८ गुरु-उपासना २५९. ज्ञानी तु शान्तविक्षेपो, नित्यभक्तिविशिष्यते । अत्यासन्नो ह्यसौ भर्तुरन्तरात्मा सदाशयः ।। अध्या० सा०।१५.७७-७८ आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी व ज्ञानी इन चार प्रकार के भक्तों में से प्रथम तीन वस्तु की विशेषता के कारण धन्य है। परन्तु जिसके मोह व क्षोभ आदि समस्त विक्षेप शान्त हो गये हैं, जो सम्यग्दृष्टि तथा अन्तरात्मा का भर्ता है, जिसका संसार अति निकट रह गया है, ऐसा ज्ञानी तो अपनी तत्त्वनिष्ठारूप नित्य-भक्ति के कारण ही विशेषता को प्राप्त है। धर्माधिकार ११ दान-सूत्र यह कदाचित् सम्भव है कि अग्नि जलाना छोड़ दे, अथवा कुपित दृष्टिविष सर्प भी डंक न मारे, अथवा हलाहल विष खा लेने पर भी वह व्यक्ति को न मारे, परन्तु यह कदापि सम्भव नहीं कि गुरु-निन्दक को मोक्ष प्राप्त हो जाय। ५. गुरु-उपासना २६०. जे केइ वि उवएसा, इह परलोए सुहावहा संति । विणएण गुरुजणाणं सवे पाउणइ ते पुरिसा ।। वसु० श्रा० । ३३३ तु० = उत्तरा० । १.४६ ये केचिदपि उपदेशाः, इह-परलोके सुखावहाः सन्ति । विनयेन गुरुजनेभ्यः, सर्वान् प्राप्नुवन्ति ते पुरुषाः ॥ इस लोक में अथवा परलोक में जीवों को जो कोई भी सुखकारी उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सब गुरुजनों की विनय से ही होते हैं। २६१. सिया हु से पावय नो हडिज्जा, आसीविसो वा कुविओ न भक्खे । सिया विसं हलाहलं न मारे, न यावि मुक्खो गुरुहीलगाए ॥ दसवै०। ९.१.७ तु०=द० पा०।२४ स्यात् खलु स पावको न बहेत, आशीविषो वा कुपितो न भक्षेत् । स्यात् विषं हलाहलं न मारयेत्, न चापि मोक्षो गुरुहीलनया ॥ ६. दया-सूत्र २६२. तिसिदं वा भुक्खिदं वा, दुहिदं दळूण जो हि दुहिदमणो। पडिवज्जदि तं किवया, तस्सेसा होदि अणुकंपा।। प्र० सा० । २६.९ । प्रक्षेपक तृषितं वा बुभुक्षितं वा, दुःखितं वा दृष्ट्वा यो हि दुःखितमनाः । प्रतिपद्यते तं कृपया, तस्येषा भवति अनुकम्पा ।। भूखे, प्यासे अथवा किसी दुखी प्राणी को देखकर जिसका मन दुखी हो गया है, ऐसा जो मनुष्य उसकी कृपा-बुद्धि से रक्षा व सेवा. करता है, उसको अनुकम्पा होती है। २६३. जह ते न पियं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं । सव्वायरमुव उत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ।। भक्त० परि०।९० तु पं० वि०। ६.३८ यथा ते न प्रियं दुःखं, ज्ञात्वेवमेव सर्वजीवानाम् । सर्वादरेणोपयुक्तं, आत्मौपम्येन कुरु दयाम् ॥ जिस प्रकार तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को नहीं है, ऐसा जानकर अत्यन्त आदरभाव से सब जीवों को अपने समान समझकर उनपर दया करो। ७. दान-सूत्र २६४. ता अँजिज्जउ लच्छी, दिज्जउ दाणं दयापहाणेण । जा जलतरंगचवला, दोतिण्णिदिणाणि चिठेइ ।। का० अ०।१२ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy