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________________ व्याधिकार १२ धर्म तथा अधर्म द्रव्य ये यद्यपि व्यापक हैं, परन्तु आकाशवत् विभु न होकर लोकाकाश प्रमाण मध्यम परिमाण वाले हैं। दोनों एक दूसरे में ओतप्रोत होकर स्थित हैं, फिर भी अपने अपने स्वरूप से परस्पर भिन्न है। अखण्ड आकाश में लोक व अलोक का विभाग भी वास्तव में इन्हीं के कारण है । ] ३०३. उदयं जह मच्छाणं, गमणाणुग्गहरं हवदि लोए । तह जीवपुग्गलाणं, धम्मं दव्वं वियाहि ॥ १३० पं०का०।८५ तु० उत्तरा०। २८.९ उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं भवति लोके । तथा जीवपुद्गलानां धर्मं द्रव्यं विजानीहि ॥ जिस प्रकार मछली के लिए जल उदासीन रूप से सहकारी है, उसी प्रकार जीव तथा पुद्गल दोनों द्रव्यों को धर्म द्रव्य गमन में उदासीन रूप से सहकारी है। ३०४. जह हवदि धम्मदव्वं, तह तं जाणेह दव्वमधम्मक्खं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं, कारणभूदं तु पुढ़वीव ॥ तु० - उत्तरा० । २८.९ द्रव्यमधर्माख्यं । पृथिवीव ॥ पं० का ० । ८६ यथा भवति धर्मद्रव्यं तथा तज्जानीहि स्थितिक्रियायुक्तानां कारणभूतं तु धर्म द्रव्य की ही भाँति अधर्म द्रव्य को भी जानना चाहिए। क्रियायुक्त जीव व पुद्गल के ठहरने में यह उनके लिए उदासीन रूप से सहकारी होता है, जिस प्रकार स्वयं ठहरने में समर्थ होते हुए भी हम पृथिवी का आधार लिये बिना इस आकाश में कहीं ठहर नहीं सकते । ३०५. ण य गच्छदि धम्मत्थो, गमणं ण करेदि अण्णदवियस्य । हवदि गती स प्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च ॥ पं० का० 1८८ १. जल मछली को जबरदस्ती नहीं चलाता, मछली स्वयं अपनी शक्ति से चलती है, परन्तु जल न हो तो इच्छा व सामर्थ्य होते हुए भी चल नहीं सकती, इसी प्रकार जीव व चल नहीं सकते, यही पुद्गल अपनी सामर्थ्य से ही चलते हैं, परन्तु धर्म द्रव्य न हो तो वे इसका उदासीन कारणपना है। Jan Education Inten२. छह में से वे दो द्रव्य ही क्रियाशील है, अन्य चार नहीं । द्रव्याधिकार १२ न च गच्छति धर्मास्तिको, गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य । भवति गतेः स प्रसरो, जीवानां पुद्गलानां च ॥ धर्मास्तिकाय न तो स्वयं चलता है और न जीव पुद्गलों को जबरदस्ती चलाता है । वह इनकी गति के लिए प्रवर्तक या निमित्त मात्र है । ( इसी प्रकार अधर्म द्रव्य को निमित्त मात्र ही समझना चाहिए ।) पं०का०२८७ १३१ काल द्रव्य ३०६. जादो अलोग लोगो, जेसि सन्भावदो य गमणठिदी । दो विय मया विभत्ता, अविभत्ता लोयमेत्ता य ॥ जातमलोकलोकं, ययोः सद्भावतश्च गमनस्थिती । द्वावपि च मतौ विभक्तावविभक्तौ लोकमात्रौ च ॥ वास्तव में देखा जाये तो इन दो द्रव्यों के कारण ही एक अखण्ड आकाश में पूर्वोक्त लोक व अलोक विभाग उत्पन्न हो गये हैं । ये दोनों ही लोकाकाश परिमाण हैं, और एक क्षेत्रावगाही हैं। परन्तु अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा दोनों की सत्ता जुदी-जुदी है। एक का स्वरूप या लक्षण गति हेतुत्व है और दूसरे का स्थिति हेतुत्व । पं० का० । २३ ६. काल द्रव्य ३०७. सन्भावसभावाणं, जीवाणं तह य पोग्गलाणं य । परियट्टणसंभूदो, कालो नियमेण पण्णत्तो ॥ For Private & Personal Use Only तु० = उत्तरा० । २८.१० सद्भावस्वभावानां जीवानां तथा च पुद्गलानां च । परिवर्तनसम्भूतः कालो नियमेन प्रज्ञप्तः ॥ १. आकाश के जितने क्षेत्र को घेर कर ये स्थित है, उतने मात्र क्षेत्र में ही जीव व पुबगल गति व स्थिति कर सकते हैं, उससे बाहर नहीं www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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