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________________ तत्त्वार्थाधिकार १३२ तत्त्व निर्देश सत्तास्वभावी' जीव व पुद्गलों की वर्तना व परिवर्तना में जो धर्म-द्रव्य की भांति ही उदासीन निमित्त है, उसे ही निश्चय से काल द्रव्य कहा गया है। ३०८. लोयायासपदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का । रयणाणं रासीमिव, ते कालाणू असंखदध्वाणि ।। द्र० सं०।२२ लोकाकाशप्रदेशो, एककस्मिन् ये स्थिताः हि एककाः। रत्नानां राशिः इव, ते कालाणवः असंख्यद्रव्याणि ॥ जैन दर्शन काल-द्रव्य को अणु-परिमाण मानता है। संख्या में ये लोक के प्रदेशों प्रमाण असंख्यात हैं। रत्नों की राशि की भांति लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक, इस प्रकार उसके असंख्यात प्रदेशों पर असंख्यात कालाणु स्थित हैं। तत्त्वार्थ अधिकार जैन दर्शन की तात्त्विक व्यवस्था मोक्षमार्गपरक है। तत्त्व नौ हैं। प्रथम दो--जीव व अजीव मूल-द्रव्य वाची हैं। आस्रव, पुण्य, पाप, व बन्ध ये चार संसार व उसके कारणभूत राग द्वेष आदि का निर्देश करके ममक्ष को जागृत करने के लिए हैं। संवर व निर्जरा ये दो तत्त्व साधना का विवेचन करते हैं, और अन्तिम मोक्ष तत्त्व उस साधना के फल का परिचय देता है। तात्त्विक दृष्टि से प्रत्येक जीव कारण-परमात्मा है, जो मुक्त हो जाने पर उसमें अभिव्यक्त हो जाता है, और वह स्वयं कार्य-परमात्मा बन जाता है । इसके अतिरिक्त अन्य कोई व्यापक एक परमात्मा जैन दर्शन को स्वीकार नहीं है। १. उत्पाद व्यय धन्य अर्थात् नित्य परिणमन करते रहना, यह सत्ता का सभाव है। दे० गा० ३६५ २. कालाणु क्रियाशील न होने के कारण त्रिकाल वहाँ के-वहाँ अवस्थित है। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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