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ब्रह्मचर्य-सूत्र
संयमाधिकार ८
६. ब्रह्मचर्य - सूत्र
१७३. जीवो बंभा जीवम्मि चेव, चरिया विज्ज जा जदिणो । बंभचेरं, विमुक्कपरदेतित्तिस्स ॥
तं
जाण
भ० आ०।८७८
जीवो ब्रह्मा जीवो चैव, चर्या भवेत् या यतिनः । तं जानीहि ब्रह्मचर्यं विमुक्त पर देहतिक्तेः (व्यापारस्य ) ॥ जीवात्मा ही ब्रह्म है। देह के ममत्व का त्याग करके उस ब्रह्म में चरण करना ही महाव्रती साधु का परमार्थ ब्रह्मचर्य है।
१७४. जउ कुंभे जोइउवगूढे, आसुभितत्ते णासमुवयाइ । एवित्थियाहि अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ॥
सू० कृ० । ४.१.२७
तु० भ० आ० । १०९२
जतुकुम्भोज्योतिरुपगूढ़, आश्वभितप्तो नाशमुपयाति । एवं स्त्रीभिरनगाराः संवासेन नाशमुपयान्ति ॥
जिस प्रकार आग पर रखा हुआ लाख का घड़ा शीघ्र ही तपकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार स्त्रियों के सहवास से साधू भी शीघ्र नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है ।
१७५. एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासायरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥
उत्तरा० । ३२.१८
तु० भ० आ० १११५
एताश्च संगान् समतिक्रम्य, सुखोत्तराश्चैव भवन्ति शेषाः । यथा महासागरमुत्तीर्य, नदी भवेदपि गंगासमाना ॥
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जिस प्रकार महासागर को तिर जाने वाले के लिए गंगा नदी का तिरना अति सुलभ है, उसी प्रकार स्त्री-संग के त्यागी महात्मा के
लिए अन्य सर्व त्याग सरल हो जाते हैं ।
संयमाधिकार ८
७. परिग्रह - त्याग - सूत्र
उत्तरा० । ३२.१०१
१७६. न कामभोगा समयं उर्वेति न यावि भोगा विगई उवेंति । जेतप्पओसीय परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥ तु० स० सि० । ७.१७ न कामभोगाः समतामुपयन्ति न चापि भोगाः विकृतिमुपयन्ति । यः तत्प्रद्वेषी च परिग्रही च स तेषु मोहात् विकृतिमुपैति ॥ काम भोग अपने आप न किसी में समता उत्पन्न करते हैं और न रागद्वेष रूप विषमता । मनुष्य स्वयं उनके प्रति रागद्वेष करके उनका स्वामी व भोगी बन जाता है, और मोहवश विकार-ग्रस्त हो जाता है । १७७. मूर्च्छाछन्नधियां सर्वं जगदेव परिग्रहः । मूर्च्छया रहितानां तु, जगदेवापरिग्रहः ॥
ज्ञान० सार । २५.८
तु० स० सि० । ७.१७ मोह के वशीभूत मूर्च्छित बुद्धिवाले के लिए यह जगत् ही परिग्रह है और मूर्च्छाविहीन के लिए सारा जगत् भी अपरिग्रह है।
[ मूर्च्छाविहीन होने के कारण, श्वेताम्बराम्नाय में, साधु वस्त्र- पात्र आदि धारण करके भी परिग्रह के दोष से लिप्त नहीं होते हैं ।]
( इतना होने पर भी बाह्य-त्याग की सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती।)
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१७८. सामिसं कुललं दिस्स, बज्झमाणं णिरामिसं । आमिसं सव्वमुज्झित्ता, विहरिस्सामि णिरामिसा ॥ तु० = म० आ० । २६४
उत्तरा० । १४.४६
परिग्रह त्याग सूत्र
१. दे० गा० ४२७
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सामिषं कुललं दृष्ट्वा, बाध्यमानं निरामिषम् । आमिषं सर्वमुज्झित्वा विहरिष्यामि निरामिषा ॥
एक पक्षी के मुंह में मांस का टुकड़ा देखकर दूसरे अनेक पक्षी उस पर टूट पड़ते हैं, किन्तु मांस का टुकड़ा छोड़ देने पर वह सुखी हो जाता है। इसी प्रकार दीक्षार्थी साधु भी समस्त परिग्रह को छोड़कर
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