SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संयमाधिकार ८ ७६ सागार-व्रत-सूत्र निरामिष हो जाता है । ( परिग्रह के कारण से उत्पन्न होने वाले अनेक विघ्न व संकट, परिग्रह का त्याग कर देने से सहज टल जाते हैं ।) ८. सागार (श्रावक ) व्रत-सूत्र १७९. पंचे अणुब्वयाई, गुणव्वयाई चहुंति तिन्नेव । सिक्खावयाइं चउरो, सावगधम्मो दुवालसविधं ॥ सावय पण्णति । ६ तु० = चा० पा० । २२ पंचैवाणुव्रतानि गुणव्रतानि च भवति त्रीण्येव । शिक्षाव्रताति चत्वारि श्रावकधर्मो द्वादशविधा ॥ [ अनगार ( साधुओं) के पाँच महाव्रतों का निर्देश कर दिया गया] सागार या गृहस्थ श्रावकों का धर्म १२ प्रकार का है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । १८०. पंच उ अणुव्वयाई, थूलगपाणवह विरमणाईणि । तत्थ पढमं इमं खलु पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥ सावय पण्णति । १०६ पंचत्वणुव्रतानि स्थूलप्राणिवध विरमणादीनि । तत्र प्रथमं इदं खलु प्रज्ञप्तं वीतरागः ॥ तु० = चा० पा० । २३ प्रथम पंचाणुव्रत का स्वरूप वीतराग भगवान् ने इस प्रकार कहा है--स्थूल प्राणिवध आदि से विरत हो जाना पाँच अणुव्रत हैं । १८१. दिसिविदिसिमाण पढमं, अणत्थदण्डस्स वज्जणं विदियं । भोगोवभोग परिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि ॥ चा० पा० । २४ तु० उपा० दश० । १, सूत्र ४६-४८ दिग्विदिग्माणं प्रथमं अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीम् । भोगोपभोगपरिमाणं इदमेव गुणवतानि त्रीणि ॥ दिव्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं । ( आगे ३ गाथाओं में इन तीनों का क्रमशः कथन किया गया है।) Jain Education International संयमाधिकार ८ सागार व्रत-सूत्र १८२. उड्ढमहो तिरियं पि य दिसासु, परिमाणकरणमिह पढमं । भणियं गुणव्वयं खलु, सावगधम्मम्मि वीरेण ॥ तु० = वसु० श्रा० । २१४ सावय पण्णति । २८० ऊर्ध्वमध स्तिर्यगपि च दिक्षु परिमाण करणमिह प्रथमम् । भणितं गुणव्रतं खलु श्रावकधर्मे वीरेण ॥ अपनी इच्छाओं को सीमित करने के लिए व्रती श्रावक ऊपर नीचे व तिर्यक् सभी दिशाओं का परिमाण कर लेता है, कि इतने क्षेत्र के बाहर किसी प्रकार का भी व्यवसाय न करूँगा । यही उसका दिव्रत नामक प्रथम गुणव्रत है । (सीमा से बाहर वाले क्षेत्र की अपेक्षा वह महाव्रती हो जाता है ।) १८३. उवभोगपरिभोगे बीयं परिमाणकरणमो णेयं । अणियमिवाविदोसा, न भवंति कायम्मि गुणभावो ॥ तु० वसु० श्रा० २१७ परिमाणकरणं विज्ञेयम् । भवन्ति कृते गुणभावः ॥ सावय पण्णति । २८४ ७७ For Private & Personal Use Only उपभोग परिभोगयोः द्वितीयं अनियमितव्याप्तिदोषाः न काम-वासना को घटाने के लिए ताम्बूल, गन्ध, पुष्प व श्रृंगार आदि की वस्तुओं का परिमाण करना द्वितीय भोगोपभोग परिमाण व्रत है। इसके प्रभाव से परिमाण बाह्य अनन्त वस्तुओं के प्रति आसक्तिभाव सर्वथा छूट जाता है। यही इसका गुणाकार करनेवाला गुणभाव है। १८४. अट्ठेण तं ण बंधइ, जमणट्ठेणं तु थोवबहुभावा । अट्ठे कालाइया, नियामगा न उ अणट्ठाए । अर्थेन तन्न नाति अर्थ कालादयो यदर्थेन नियामकाः सावय पण्णत्त । २९० स्तोकबहुभावात् । वनयें ॥ न www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy