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________________ संयमाधिकार ८ सामायिक-सूत्र संयमाधिकार ८ सागार-व्रत-सूत्र जीव को सप्रयोजन कर्म करने से उतना बन्ध नहीं होता जितना कि निष्प्रयोजन से होता है। क्योंकि सप्रयोजन कार्य में जिस प्रकार देश काल भाव आदि नियामक होते हैं, उस प्रकार निष्प्रयोजन में नहीं होते। श्रावक ऐसे अनर्थदण्ड का त्याग करता है। १८५. सामाइयं च पढम, विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं च अतिहिपुज्जं, चउत्थं सल्लेहणा अंते ॥ चा०पा० । २५ तु० = उपा० दश० । १ सूत्र ४९-५४ सामायिकं च प्रथम द्वितीयं च तथैव प्रोषधो भणितः । तृतीयं चातिथिपूजा चतुर्थ सल्लेखना अंते ॥ सामायिक', प्रोषधोपवास, अतिथि पूजा', और सल्लेखना (समाधि मरण) • ये चार शिक्षाव्रत कहे गये हैं। (क्योंकि इनसे श्रावक को अभ्यास आदि के द्वारा साधु-व्रत की शिक्षा मिलती है ।) १८६. आहारपोसहो खलु, सरीरसक्कारपोसहो चेव । बंभवावारेसु य, तइयं सिक्खावयं नाम । सावय पण्णत्ति । ३२१ तु० = वसु० श्रा० । २८० आहारप्रोषधः खलु, शरीरसत्कार प्रौषधश्चैव । ब्रह्माव्यापारयोश्च तृतीयं शिक्षावतं नाम ॥ (अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में उपवास धारण करके सारा दिन धर्मध्यान पूर्वक मन्दिर आदि में बिताना प्रोषध व्रत कहलाता है।) वह चार प्रकार का है-आहार का त्याग, शरीर-संस्कार व स्नान आदि का त्याग, ब्रह्मचर्य, तथा व्यापार-धन्धे का त्याग। ९. सामायिक-सूत्र १८७. जो समो सव्वभूएस, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इई केवलिभासियं ।। वि० आ० भा० । २६८० (३१६३) तु० = मू० आ० । ५२१ (७. २५) यः समः सर्वभूतेषु त्रसेषु स्थावरेषु च। तस्य सामायिकं भवतीति केवलिभाषितम् ॥ जो मुनि बस व स्थावर सभी भूतों अर्थात् देहधारियों में समता भाव युक्त होता है, उसको सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है। १८८. सावज्जजोगंपरिक्खणट्ठा, सामाइयं केवलियं पसत्थं । गिहत्थधम्मापरमं ति नच्चा, कुज्जा बुहो आयहियं परत्था॥ वि० आ० मा० । २६८१ (३१६४) सावधयोगपरिरक्षणार्थ सामायिक केवलिकं प्रशस्तम् । गृहस्थधर्मान् परमिति ज्ञात्वा, कुर्याद् बुध आत्महितं परार्थम् ॥ सावध योग से अर्थात् पापकार्यों से अपनी रक्षा करने के लिए पूर्णकालिक सामायिक या समता ही प्रशस्त है ( परन्तु वह प्रायः साधुओं को ही सम्भव है)। गृहस्थों के लिए भी वह परम धर्म है, ऐसा जानकर स्व-पर के हितार्थ बुधजन सामायिक अवश्य करें। १८९. विना समत्वं प्रसरन्ममत्वं, सामायिक मायिकमेव मन्ये । आये समानां सति सद्गुणानां, शुद्धं हि तच्छुद्धनया विदन्ति । अध्या० उप० । ४.८ तु० = नि० सार । १४७ १. यदि पूर्णकालिक सम्भव न हो सो शक्ति अनुसार दो-चार बड़ी मात्र के लिए ही करें (वि०मा० भा । २६८३) (३१६६) १. आवश्यकता के अनुसार कार्य करना मप्रयोजन है और बिना आवश्यकता के कुछ भी करना निष्प्रयोजन है। यथा-बिना आवश्यकता के विजली, पंखा व नल खुला छोड़ देना, किसी को पापाचार की सलाह देना, इत्यादि। + सामायिक व्रत दे० आगे सामायिक सूत्र; अतिथि पूजा व्रत = दे० गा० २६५ सल्लेखना व्रत = दे० अधि० १० Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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