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________________ १७९ देशकाल का प्रभाव १७८ आम्नाय अधि० १८ आम्नाय अधि० १८ जैनधर्म को शाश्वतता १. जैनधर्म की शाश्वतता ४०८. जंबूद्दीवे भरहेरावएसु वासेसु, एगसमए एगजुगे दो। अरहंतवंसा उप्पज्जिसुवा, उप्पज्जिति वा उप्पज्जिस्संति वा ।। स्थानांग । २.३०.२० (८९) तु० - ज०प० । १९९ जम्बूद्वीपे भरतरावतेषु वर्षेषु, एकसमये एकयुगे द्वौ। अहंदशौ उत्पन्नौ वा, उत्पद्यते वा उत्पत्स्यतः वा॥ इस जम्बूद्वीप के भरत और ऐरावत इन दो वर्षों या क्षेत्रों में एक साथ अहंत या तीर्थंकर वंशों की उत्पत्ति अतीत में हुई है, वर्तमान में हो रही है और भविष्य में भी इसी प्रकार होती रहेगी। (वर्तमान युग के तीर्थंकरों में ऋषभदेव प्रथम है, अरिष्टनेमि २२वें, पार्श्वनाथ २३ वें और भगवान् महावीर अन्तिम अर्थात् २४ वें हैं।) ४०९. तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति, भास्करो यथा लोकम् । तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते, तीर्थकरः एवम् ॥ नन्दिसूत्र । २ की मलयगिरि टीका में उद्धृत । पृ० २१ जिस प्रकार सूर्य स्वभाव से ही लोक को प्रकाशित करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसी प्रकार ये सभी तीर्थकर स्वभाव से ही तीर्थवर्तना के लिए प्रवृत्त होते हैं । ४१०. अविसु पुरा वि भिक्खवो, आएसा वि भवंति सव्वया। एयाइँ गुणाई आहु ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो॥ सू० कृ० । १.२.३.२० अभवन् पुरापि भिक्षवः, आगामिनश्च भविष्यन्ति सुव्रताः । एतान् गुणानाहुस्ते, काश्यपस्य धर्मानुचारिणः ।। हे मुनियो ! भूतकाल में जितने भी तीर्थकर हुए हैं और भविष्यत् में होंग, वे सभी व्रती, संयमी तथा महापुरुष होते हैं। इनका उपदेश नया नहीं होता, बल्कि काश्यप अर्थात् ऋषभदेव के धर्म का हो अनुसरण करने वाला होता है । ( तीर्थंकर किसी नये धर्म के प्रवर्तक नहीं होते, बल्कि पूर्ववर्ती धर्म के अनुवर्तक होते हैं।) ४११. सव्वण्हुमुहविणिग्गय, पुवावरदोसरहिदपरिसुद्धं । अक्खयमणाहिणिहणं, सुदणाणपमाणं णिद्दिढें । ज०प०।१३.८३ सर्वज्ञमुख विनिर्गतः, पूर्वापरदोषरहितपरिशुद्धम् । अक्षयमनादिनिधनं, श्रुतज्ञानप्रमाणं निर्दिष्टम् ॥ (यही कारण है कि) सर्वज्ञ भगवान् तीर्थङ्कर के मुख से निकला हुआ, पूर्वापर विरोध-रहित तथा विशुद्ध यह द्वादशांग श्रुत अर्थात् जैनागम अक्षय तथा अनादि-निधन कहा गया है। २. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन ४१२. एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ? धम्मे दुविहे मेहावि, कहं विप्पच्चओ न ते ? उत्तरा। २३.२४ एककार्यप्रपन्नयोः, विशेषे किन्नु कारणम् । धर्मे द्विविधे मेधाविन् ! कथं विप्रत्ययो न ते॥ (भगवान महावीर ने पंचव्रतों का उपदेश किया और उनके पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्व ने चार व्रतों का। इस विषय में केशी ऋषि गौतम गणधर से शंका करते हैं, कि) हे मेधाविन् ! एक ही कार्य में प्रवृत्त होने वाले दो तीर्थंकरों के धर्मों में यह विशेष भेद होने का कारण क्या है ? तथा धर्म के दो भेद हो जाने पर भी आपको संशय क्यों नहीं होता है ? ४१३. पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ। ___ कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोज्झो सुपालओ। उत्तरा०।२३.२७ तु. = भू. आ०।५३५ (७.४३) पूर्वेषां दुर्विशोध्यस्तु, चरमाणां दुरनुपालकः । कल्यो मध्यमगानां तु, सुविशोध्यः सुपालकः ॥ यहाँ गौतम उत्तर देते हैं कि प्रथम तीर्थकर के तीर्थ में युग का आदि होने के कारण व्यक्तियों की प्रकृति सरल परन्तु बुद्धि जड़ होती Jain Education International te & Personal uion on www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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