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________________ आम्नाय अधि० १८ १८४ यदपि वस्त्रं च पात्रं च कम्बलं तदपि संयमलज्जार्थं धारयन्ति श्वेताम्बर-सूत्र पादप्रोंछनम् । परिहरन्ति च ॥ साधुजन ये जो वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पादत्रोंछन आदि उपकरण धारण करते हैं, वे केवल संयम व लज्जा की रक्षा करने के लिए, अनासक्ति भाव से ही इनका उपयोग करते हैं, और किसी प्रयोजन से नहीं । समय आने पर अर्थात् हेमन्त आदि के बीत जाने पर इनका यथाशक्ति पूर्ण या एकदेश त्याग भी कर देते हैं । ४२७ न सो परिग्गहो बुसो, नापपुरोग ताणा मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इय वृत्तं महेसिणा ॥ Jain Education International दशवं । ६.२१ नाऽसौ परिग्रहः उक्तः, ज्ञातपुत्रेण त्रायिना । महर्षिणा ॥ मूर्छा परिग्रहः उक्तः इत्युक्तं परन्तु इतने मात्र से साधु परिग्रहवान् नहीं हो जाते हैं, क्योंकि ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने पदार्थों की मूर्च्छा या आसक्ति भाव को परिग्रह कहा है, पदार्थों या उपकरणों को नहीं। यही बात महर्षि स्वामी ने अपने शिष्यों से कही है। ४२८. सव्वत्युवहिणा बुद्धा, संरक्षण-परिहे। अति अपणो विदेहम्म, नाऽऽयरन्ति ममाइयं ॥ दशवं० । ६.२२ संरक्षणपरिहे। सर्वत्रोपधिना बुद्धाः, अप्यात्मनोऽपि देहे, नाचरन्ति ममत्वम् ॥ समता- भोगी जिन वीतरागियों को अपनी देह के प्रति भी कोई ममत्व नहीं रह गया है, वे इन वस्त्र पात्र आदि के प्रति ममत्व रखते होंगे, यह आशंका कैसे की जा सकती है ? १. आचारांग ८.४ सूत्र २ २. दे० गा० १७६ १७७ परिशिष्टः १ गाथा का आदि शब्द अगणिअ जो मुक्ख अचेलगो य जो धम्मो अज्झवसाण विसुद्धी अट्ठेण तं ण बंधइ अण्णोष्णं पविसंता अतीन्द्रियं परं ब्रह्म अतः शुद्धनयायत्तं अत्थं जो ण समिक्खड़ अधीत्य सकलं श्रुतं अघुवयसरणमे गत्त अध्यात्मशास्त्रहेमाद्रि अनन्यशरणीभूय अनेकमेकं च पदस्य अनेकान्तोप्यनेकान्तः अन्तस्तत्त्व विशुद्धात्मा अन्नं इमं सरीरं अप्पा कत्ता विकत्ता य अप्पा नई वेयरणी अन्तरसोधीए अमुट्ठाणं अंजलि अभविसु पुरा वि अभ्यासे सत्क्रियापेक्षा अम्भोवद्बुदसंनिभा अरसमरूवमगंधं अर्थोऽयमपरोऽनर्थं अलक्ष्यं लक्ष्यसम्बन्धात् For Private & Personal Use Only गाथानुक्रमणिका ( अंक गाथाओं के हैं) गाथांक १६१ ४१९ २०४ १८४ ३४७ ९३ ३१२ ३९३ ५६ ܘܘ܀ ८८ २२६ ४०४ ३८० २४३ १०७ १३ १२ ७८ २१६ ४१० ३३ १०१ २९० गाथा का आदि शब्द अवरोप्परसावेक्वं अवि सुइयं वा सुक्कं वा असई उच्चागोए असुहादो विणिवित्ति असुहेण णिरय तिरियं अहं ब्रह्मस्वरूपिणी अहमिक्को खलु सुद्धो २२५ आगासकालपुग्गल आदा णाणपमाण आदिणिहण होणो आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी आलोयणादिकिरिया आलोयणा गरिहाईय आसवदारेहिं सया आह गुरु पूयाए आहच्च सवणं ल आहारपोसहो खलु इं दिअकसायअव्वय इक्कं पंडियमरणं इत्थी पुरिससिद्धा य इमं च मे अतिथ इय जीवमजीवे य इमासेसणादाणे इह सामण्णं साधु इहलोगणिरवेक्लो उक्कोरसचरित्तोऽवि गाथांक ३८४ २५३ २७२ १३९ १११ ३७५ २८४ ३१३ २९२ २८६ २५८ ३६ २१४ ३१८ २५७ ११३ १८६ ३१७ २३३ ४२२ १७ २६ १९१ २४१ २०२ १५४ www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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