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निश्चय-चारित्र अधिकार
(बुद्धि-योग)
मोह-क्षोभविहीन आत्मा का निश्चल परिणाम ही चारित्र शब्द का वाच्य है। इष्टानिष्ट विषयों में राग-द्वेष का न होना, लाभ-अलाभ आदि में समता, कषाय निग्रह, इन्द्रिय-जय, बैराग्य-परायणता तथा तितिक्षा भाव, ये सब उसके लिंग है।
ज्ञानाधिकार ५
अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका ११३. आहच्च सवणं लर्बु, सद्धा परमदुल्लहा ।
सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई ॥ उत्तरा० । ३.९
तु०= पं० वि०। ४.६-८ कदाचित् श्रवणं लब्ध्वा, श्रद्धा परमदुर्लभा।
श्रुत्वा नयायिक मार्ग, बहवः परिभ्रश्यन्ति । कदाचित धर्म-श्रवण का लाभ हो जाय तो भी धर्म में श्रद्धा होना दुर्लभ है, क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि रूप इस न्याय-मार्ग को सुनकर भी अनेक व्यक्ति ( श्रद्धायुक्त चारित्र अंगीकार करने के बजाय ज्ञानाभिमानवश स्वच्छन्द व ) पथ-भ्रष्ट होते देखे जाते हैं। ११४. सुइं च लर्बु सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं ।
बहवें रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए । उत्तरा०।३.१०
तु० - रा० वा० । ९.७.९ श्रुति च लब्ध्वा श्रद्धां च, वीर्य पुनर्दुर्लभम् । बहवः रोचमानाऽपि, नो च तत् प्रतिपद्यन्ते ॥
और यदि बड़े भाग्य से सुनकर श्रद्धा हो जाय तो भी चारित्र पालने के लिए वीर्योल्लास का होना दुर्लभ है। क्योंकि अनेक व्यक्ति सद्धर्म का ज्ञान व रुचि होते हुए भी उसका आचरण करने में समर्थ नहीं होते हैं। (छ) धर्म ही सुख ११५. धम्मेण विणा जिणदेसिएण, नन्नत्थ अस्थि किंचि सुहं ।
ठाणं वा कज्ज वा, सदेवमणुयासुरे लोए। मरण समा०। ६०१
तु० = ज्ञा० । २.१० । ११ धर्मेण विना जिनदेशितेन, नान्यत्रास्ति किंचित्सुखम् । स्थानं वा कार्य वा, सदेवमनुजासुरे लोके ।।
जिनोपदिष्ट धर्म के बिना देवलोक में, मनुष्यलोक में या असुरलोक में कहीं भी किचिन्मात्र सुख नहीं है, न तो कोई सुख का स्थान ही है और न कोई सुख का साधन ही।
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