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________________ द्रव्याधिकार १२ , १२४ जीव द्रव्य अस्तित्व स्वरूप तो है, पर अणु-परिमाण होने से कायवान नहीं है। ये सब अस्तित्वमयी है, अर्थात् स्वतः सिद्ध हैं। इसलिए इस लोक के मूल उपादान कारण है। २. जीव द्रव्य (आत्मा) (जैन दर्शन में 'जीव' शब्द केवल प्राणधारी जीवात्मा के अर्थ में ही प्रयुक्त नहीं हुआ है, बल्कि उस अमूर्तीक शुद्ध चेतन तत्त्व के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जो कि कीट, पतंग आदि अथवा पृथिवी कायिका दि से लेकर मनुष्य पर्यन्त के सभी शरीरों में अहं प्रत्यय के रूप में प्रतीति गोचर होता है। __शरीर व कर्मों की उपाधि से युक्त होकर वही अशुद्ध या संसारी हो जाता है और इनके नष्ट हो जाने पर वही मुक्त संज्ञा को प्राप्त होता है। इन उपाधियों को दष्टि से ओझल कर देने पर वही बन्ध मोक्ष की कल्पना से अतीत त्रिकाल शुद्ध नित्य निरंजन परमात्मा कहलाता है। इतनी विशेषता है कि यहाँ यह तत्त्व एक व विभु न होकर प्रत्येक देह में पृथक्-पृथक् अवस्थित होने के कारण संख्या में अनन्त है।) २८९. कत्ता भोत्ता अमुत्तो, सरीरमित्तो अणाइणिहणो य। दसणणाणउव ओगो,जीवो णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहि ।। भा० पा० । १४८ तु० - अध्या० सा० । १८.३८-३९, सन्मति । १.५१ कर्ता, भोक्ता अमूर्तः, शरीरमात्रः अनादिनिधनः च । दर्शनज्ञानोपयोगः, जीवः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रः ।। जीव या आत्मा आकाशवत् अमूर्तीक है और (देह में रहता हुआ) देह-प्रमाण है। यह अनादि निधन अर्थात् स्वतः सिद्ध है । ज्ञान व दर्शन रूप उपयोग ही उसका प्रधान लक्षण है। (देहधारी) वह अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है तथा उनके मुख-दुःख आदि फलों का भोक्ता भी है। २९०. अरसमरूवमगंध, अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाण अलिंगग्गहण, जीवाणद्दिसंठाणं ।। स० सा० । ४९ तु० = आचारांग। ५.६ सूत्र ६ द्रव्याधिकार १२ १२५ जीव द्रव्य अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् । जानीहि अलिंगग्रहणं, जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ॥ [जीव द्रवप इतना निर्विकल्प है कि नेति का आश्रय लिये बिना उसका कथन किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है। वह अरस है, अरूप है, अगन्ध है, अव्यक्त है, अशब्द है तथा अनुमान ज्ञान का विषय न होने से मन-वाणी के अगोचर है। वह न तिकोन है, न चौकोर आदि अन्य किसी संस्थान वाला। (वह अबद्ध है, अस्पृष्ट है, अनन्य व अविशेष है।) चेतना मात्र ही उसका निज स्वरूप है। २९१. सव्वे सरा नियति, तक्का तत्थ न विज्जइ। मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने । आचारांग। ५. ६ सूत्र ६ तु० = आराधनासार। ८१ सर्वे स्वराः निवर्तन्ते, तर्को यत्र न विद्यते । मतिस्तत्र न ग्राहिका, ओजः अप्रतिष्ठानस्य खेदज्ञः॥ (शास्त्र केवल मनुष्यादिक व्यवहारिक जीवों का ही विस्तार करने वाले है। इन सर्व विकल्पों से अतीत) मुक्तात्मा का स्वरूप बतलाने में सभी शब्द निवृत्त हो जाते हैं, तर्क वहाँ तक पहुँच नहीं पाता, और बुद्धि की उसमें गति नहीं। वह मात्र चिज्ज्योति स्वरूप है। २९२. आदा णाणपमाणं, णाण णयप्पमाणमुद्दिढें । यं लोयालोय, तम्हा णाण तु सव्वगयं ॥ प्र० सा०।२३ तु० = आचारांग। ५. ५ सूत्र ७ आत्मा ज्ञानप्रमाणं, ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम् । ज्ञेयं लोकालोकं, तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम् ॥ आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, और ज्ञेय लोकालोक प्रमाण है। इसलिए जान सर्वगत है। १. दे० गा०८१ २. दे० गा० २१ १. दे० गा० ३४२-२४४ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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