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________________ सल्लेखना अधिकार १० सातत्य योग सल्लेखना अधिकार १० ९८ देह-त्याग २३५. तस्स ण कप्पदि भत्तपइण्णं, अणुवठिदे भये पुरदो। सो मरणं पच्छितो, होदि दु सामण्णणिविण्णो । भ० आ० । ७६ तस्य न कल्पते भक्तप्रतिज्ञा-मनुपस्थिते भये पुरतः । सो मरणं प्रेक्षमाणः, भवति हि श्रामण्यान्निविण्णः ॥ परन्तु यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति संयममार्ग में कोई भय न होने पर भी मरने की इच्छा करता है, तो उसे वास्तव में संयम से विरक्त हुआ ही समझो। २. देह-त्याग २३६. संलेहणा य दुविहा, अभिंतरिया य बाहिरा चेव । __ अभितरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे ॥ मरण समा०।१७६ तु० भ० आग२०६ सल्लेखना च द्विविधा, अभ्यन्तरा च बाह्या चैव । अभ्यन्तरा कषाये, बाह्या भवति च शरीरे ॥ सल्लेखना अर्थात् पण्डितमरण दो प्रकार का होता है-आभ्यन्तर व बाह्य । कषायों को कृश करना आभ्यन्तर सल्लेखना है और शरीर को कुश करना बाह्य। २३७. णवि कारणं तणमओ, संथारो णवि य फासुया भूमी। अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मणो जस्स ॥ महा प्रत्या० । ९६ तु० - भ० आ० । १६७२ नैव कारणं तृणमयः संस्तारकः, नैव च प्रासुका भूमिः । आत्मैव संस्तारको भवति, विशुद्धं मनो यस्य । न तो तृणमय संस्तर ही सल्लेखना-मरण का कारण है और न ही प्रासुक भूमि। जिसका मन शुद्ध है ऐसा आत्मा ही वास्तव में संस्तारक है । २३८. कसाए पयणूए किच्चा, अप्पाहारे तितिक्खए। अह भिक्खू गिलाइज्जा, आहारस्सेव अंतियं । आचारांग । ८.८.३ तुम. आ० । २४७ कषायानु प्रतनून् कृत्वा, अल्पाहारान् तितिक्षते। अथ भिक्षुग्ायेत्, आहारस्येव अन्तिकम् ॥ सल्लेखनाधारी क्षपक को चाहिए कि वह कषायों को पतला करे और आहार को धीरे-धीरे घटाता जाय। क्षमाशील रहे तथा कष्ट को सहन करे। क्रमशः आहार घटाने से जब शरीर अति कृश हो जाय तो उसका सर्वथा त्याग करके अनशन धारण कर ले। ३. अन्त मति सो गति २३९. जो जाए परिणिमित्ता, लेस्साए संजुदो कुणइ कालं । तल्लेस्सो उववज्जइ, तल्लेस्से चैव सो सग्गे ।। म. आ०।१९२२ तु० = संस्तारक प्रकीर्णक । ५२ यो यया परिनिमित्तात्, लेश्यया संयुक्तः करोति कालम् । तल्लेश्यः उपजायते, तल्लेश्ये चैव सः स्वर्गे॥ जो व्यक्ति जिस लेश्या या परिणाम से युक्त होकर मरण को प्राप्त होता है, वह अगले भव में उस लेश्या के साथ उसी लेश्यावाले स्वर्ग में उत्पन्न होता है। ४. सातत्य योग २४०. जह रायकुलपसूओ, जोग्गं णिच्चमवि कुणई परियम्म। तो जिदकरणो जुद्धे, कम्मसमत्थो भविस्सदि हि ।। २४१. इह सामण्ण साधू वि कुणदि, णिच्चमवि जोग परियम्म । तो जिदकरणो मरण मागसमत्थो भविस्संति ।। यथा राजकुलप्रसूतो योग्यं नित्यमपि करोति परिकर्म । ततः जितकरणो युद्धे कर्मसमर्थो भविष्यति हि ॥ ____Jain Education internationa" " ९ . For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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