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________________ तप व प्यान अधि०९ ९ ४ ध्यान-समाधि सूत्र २२५. अलक्ष्यं लक्ष्यसम्बन्धात्, स्थूलात्सूक्ष्मं विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्बं, तत्त्ववित्तत्त्वमंजसा ॥ योग शास्त्र । १०.५ तु० ज्ञा०।३३.४ लक्ष्य के सम्बन्ध से अलक्ष्य का तथा स्थल के सम्बन्ध से सक्ष्म का चिन्तवन किया जाता है। तत्वविद् व्यक्ति सालम्ब ध्यान से शीघ्र ही निरालम्ब तत्त्व को प्राप्त कर लेता है। २२६. अनन्यशरणीभूय, स तस्मिल्लीयते तथा । ध्यातृध्यानोभयाभावे, ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् ॥ योग शास्त्र । १०.३ तु० = ज्ञानार्णव। ३१.३७ क्योंकि ध्याता का मन अन्य सब लक्ष्यों की शरण छोड़कर परम तत्त्व में ऐसा लीन हो जाता है, कि ध्याता व ध्यान का भी कोई भेद नहीं रह जाता। वह ध्येय के साथ एकता को प्राप्त हो जाता है। २२७. चितंतो ससरूवं जिबिंबं, अहव अक्खरं परमं । झायदि कम्मविवायं, तस्स वयं होदि सामाइयं ।। ___ का० अ०। ३७२ चिन्तयन स्वस्वरूपं जिनबिम्बं, अथवा अक्षरं परमम् । ध्यायति कर्मविपाक, तस्य व्रतं भवति सामायिकं ॥ जो व्यक्ति स्वस्वरूपका व जिनबिम्ब का चिन्तवन, अथवा परम अक्षर ॐकार का जप व ध्यान करता है, अथवा कर्मों के विपाक का ध्यान करता है, उसको 'सामयिक'' नामक बत होता है। २२८. किंचिवि दिठिमुपावत्तइत्तु, ज्झये णिरुद्धदिट्ठीओ। अप्पाणम्मि सदि, संधित्ता संसारमोक्खळं ।। म. आ०।१७०६ तु०-यो० शा०१२.३१-३२ किंचिन् दृष्टिमुपावर्त्य, ध्येये निरुद्धदृष्टिः । आत्मनि स्मृति संघाय, संसार-मोक्षार्थम् ॥ तप व ध्यान अधि०९ ध्यान-समाधि सूत्र जिसकी दृष्टि बाह्य ध्येयों में अटकी हुई है, वह उस विषय से अपनी दृष्टि को कुछ क्षण के लिए हटाकर संसार से मुक्त होने के लिए अपनी स्मृति को आत्मा में लगावे।। २२९. एवं क्रमशोऽभ्यासावेशाद् ध्यानं भजेन्निरालम्बम् । ___समरसभावं यातः, परमानन्दं ततोऽनुभवेत् ।। योग शास्त्र । १२.५ तु० = ज्ञा०।३०.५ इस प्रकार क्रमशः ध्यान का अभ्यास करते-करते योगी निरालम्ब को भजने लगता है। और समरस भाव को प्राप्त होकर वह किसी अद्वितीय परमानन्द का अनुभव करने लगता है। २३०. जं किंचिवि चितंतो, गिरीहवित्ती हवे जदा साहू । लद्धूणय एयत्तं, तदाहु तं णिच्छयं झाणं ॥ द्र०सं०। ५५ यत्किंचिदपि चिन्तयन्, निरीहवृत्तिः भवति यदा साधुः । लब्ध्वा च एकत्वं, तदा आहुः तत् तस्य निश्चयं ध्यानम् ॥ [अभ्यासवश ऊपर उठ जाने पर] साधु जब ध्येय के प्रति एकाग्रचित्त होकर निरीहवृत्ति से किसी भी विषय का चिन्तवन करता है तब वही उसके लिए निश्चय से ध्यान बन जाता है। २३१. मा चिट्ठह मा पह मा चिन्तह, किं विजेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्हि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ।। द्र०सं०। ५६ तु० = यो० शा० । १२.१९ मा चेष्टत मा जल्पत मा चिन्तयत, किमपि येन भवति स्थिरः । आत्मा आत्मनि रतः, इदं एव परं ध्यानं भवति ॥ [इस प्रकार करने से ध्याता एक ऐसी तूष्णी अवस्था को प्राप्त हो जाता है, कि वह न तो शरीर से कुछ चेष्टा करता है, न वाणी से कुछ बोलता है और न मन से कुछ चिन्तवन ही करता है। उसके मन वचन व काय स्थिर हो जाते हैं, और उसकी आत्मा आत्मा में ही रत हो जाती है। यही चरम अवस्था का वह परम ध्यान है [जिसे शुक्लध्यान या समाधि कहते हैं।] १. सामायिक व्रत के अन्तर्गत भी ध्यान किये जाने का विधान है। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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