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________________ ५४ चारित्राधिकार ६ कषाय-निग्रह जिससे पूर्ण प्रकाशस्वरूप तथा अचल दीप्तिवाली सहज ज्ञान-ज्योति जागृत हो जाये। १. (चारों कषाय, तीन गौरव, पाँच इन्द्रिय तथा अनुकुल व प्रतिकल विघ्नों को जीतकर और आराधनारूपी पताका को हाथ में लेकर, मित्र, पुत्र, बन्धु व इष्टानिष्ट विषयों में किंचिन्मात्र भी राग व द्वेष न करे।) २. ( समस्त दुःखों की खान जानकर इस शरीर के प्रति ममत्वभाव का त्याग कर दे।) चारित्राधिकार ६ समता-सूत्र क्रोधं क्षमया मानं मार्दवेन, आर्जवेन मायां च। संतोषेण च लोभं, निर्जय चतुरोऽपि कषायान् । क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से तथा लोभ को संतोष से', इस प्रकार इन चारों कषायों को जीत ले। ४. कषाय-निग्रह १२२. उवसमदयादमाउहकरेण, रक्खा कसायचोरेहि । सक्का काउं आउहकरेण, रक्खा वा चोराणं ॥ भ० आ०।१८३६ तु०= आचारांग ३.२.९ (११४) उपशमदयादमायुधकरणेन, रक्षा कषायचौरैः। शक्या कर्तु आयुधकरणेन, रक्षा इव चौरेभ्यः॥ जिस प्रकार सशस्त्र पुरुष चोरों से अपनी रक्षा करता है, उसी प्रकार उपशम दया और निग्रहरूप तीन शस्त्रों को धारण करनेवाला कषायरूपी चोरों से अपनी रक्षा करता है। १२३. कोहस्स व माणस्स व, मायालोभेसु वा न एएसि । वच्चइ वसं खणंपि ह, दुग्गइगइवड्ढणकराणं ।। मरण समा०।१९० क्रोधस्य च मानस्य च, माया लोभयोश्च नेतेषां । व्रजति वशं क्षणमपि दुर्गतिगतिवर्द्धनकराणाम् ॥ दुर्गति की वृद्धि करनेवाले क्रोध मान माया व लोभ इन चारों के वश, एक क्षण के लिए भी न हो। १२४. कोहं खमाइ माणं मद्दवया, अज्जवेण मायं च । संतोसेण व लोहं निज्जिण चत्तारि वि कसाए। मरण समा०।१८९ तु० भ० आ०।२६० ५. इन्द्रिय-जय १२५. जहा कुम्मे सुअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥ सू० कृ० । १.८.१६ तु० भ० आ०।१८३७ यथा कूर्मः स्वांगानि स्वस्मिन् देहे समाहरेत् । एवं पापानि मेधावी, अध्यात्मना समाहरेत् ।। जिस प्रकार कछुआ विपत्ति के समय अपने अंगों को अपने शरीर के भीतर समेट लेता है, उसी प्रकार पण्डित जन विषयों की ओर जाती हुई अपनी पापप्रवृत इन्द्रियों को अध्यात्मज्ञान के द्वारा समेट लेते हैं। १२६. यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि । इ० उ०।३७ आत्मा व अनात्मा के भेद-ज्ञान के द्वारा ज्यों-ज्यों आत्मा का स्वरूप अनुभव में आता जाता है, त्यों-त्यों सहज प्राप्त रमणीय विषय भी अरुचिकर प्रतीत होते जाते हैं। ६. समता-सूत्र ( स्थितप्रज्ञता) १२७. लाहालाहे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो जिंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ।। उत्तरा०। १९.९१ तु० = अ० ग० श्रा०। ८.३.१ १. क्षमा, मार्दव, आर्जन व सन्तोष-देगा. २६७-२७८ ॥ १. दे. गा० ७२-७३। Jain Education International २. दे० गा० १०१। For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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