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________________ चारित्राधिकार ५६ लाभालाभे सुखे दुःखे, जीविते मरणे तथा । समः निन्दाप्रशंसयोः, तथा मानापमानयोः ॥ लाभ व अलाभ में, सुख व दुःख में, जीवन व मरण में, निन्दा प्रशंसा में तथा मान व अपमान में भिक्षु सदा समता रखे। (यही साधु का सामायिक नामक चारित्र है । ) वराम्य-सूत्र उत्तरा० । ३२.२१ १२८. जे इंदियाणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न याऽमणुन्नेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ तु० = मू० आ० । ५२२ (५.१२१ ) य इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञाः, न तेषु भावं निसृजेत् कदापि । न चामनोज्ञेषु मनोऽपि कुर्यात्, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी ॥ समाधि का इच्छुक तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग न करे और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष भी न करें । अध्या० सा० । ९.४ १२९. एकस्य विषयो यः स्यात्स्वाभिप्रायेण पुष्टिकृत् । अन्यस्य द्वेष्यतामेति, स एव मतिभेदतः ॥ तु० यो० सा० अ० । ५.३६ तत्त्वतः कोई भी विषय मनोज्ञ या अमनोज्ञ नहीं होता, क्योंकि जो विषय किसी एक व्यक्ति को उसकी अपनी रुचि के अनुसार इष्ट होता है, वही दूसरे व्यक्ति को उसके मतिभेद के कारण द्वेष्य या अनिष्ट होता है । ७. वैराग्य-सूत्र ( संन्यास- योग ) १३०. धम्मे य धम्मफलम्हि दंसणे य हरिसो य हुति संवेगो । वैराग्यं ॥ संसारदेह भोगेसु, विरत्तभावो य द्र० सं० । ३५ की टीका में उद्धत धर्मे च धर्मफले दर्शने च हर्षः च भवति संवेगो । संसारदेहभोगेषु, विरक्तभाव: च वैराग्यम् ॥ १. दे० गा० २५३-२५४ । Jain Education International वैराग्य-सूत्र चारित्राधिकार ६ धर्म में, धर्म के फल में और सम्यग्दर्शन में जो हर्ष होता है, वह तो संवेग है, और संसार देह भोगों से विरक्त होना वैराग्य या निवेद है। ५७ १३१. यस्य सस्पन्दमाभाति, निःस्पन्देन समं जगत् । अप्रज्ञमक्रियाsभोगं स शमं याति नेतरः ॥ स० श० । ६७ जिसको चलता-फिरता भी यह जगत् स्तब्ध के समान दीखता है, प्रज्ञा-रहित, क्रिया- रहित तथा सुखादि के अनुभव से रहित दीखता है, उसे वैराग्य हो जाता है, अन्य को नहीं । १३२. भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥। उत्तरा० । ३२.९९, For Private & Personal Use Only भावे विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुःखौघपरम्परया । न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ॥ जो व्यक्ति भाव से विरक्त है, और दुःखों की परम्परा के द्वारा जिसके चित्त में मोह व शोक उत्पन्न नहीं होता है, वह इस संसार में रहते हुए भी, उसी प्रकार अलिप्त रहता है, जिस प्रकार जल के मध्य कमलिनी का पत्ता । १३३. सेतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई । पगरणचेट्ठा कस्स वि, ण य पायरणो त्ति सो होई ।। स० [सा० । १९७ तु० = अध्या० सा० । ५.२५ सेवमानोऽपि न सेवते, असेवमानोऽपि सेवकः कश्चित् । प्रकरणचेष्टा कस्यापि न च प्राकरण इति स भवति || कोई वैराग्य-परायण तो विषयों का सेवन करता हुआ भी उनका सेवन नहीं करता है, और आसक्त व्यक्ति सेवन न करता हुआ भी सेवन कर रहा है। जैसे किसी के द्वारा नियोजित व्यक्ति चेष्टा करता www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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