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________________ नय अधिकार १६ १६२ नयवाद नय अधिकार १६ पक्षपात-निरसन अर्थात् मिथ्यादृष्टि हैं, और परस्पर में समुदित हो जाने पर सभी सम्यग्दृष्टि है। (कारण अगली गाथा में बताया गया है।) १. नयवाद ३७९. णाणाधम्मजुदं पि य, एयं धम्म पि बुच्चदे अत्थं । तस्सेव विवक्खादो, णत्थि विवक्खा हु सेसाणं । का० अ०। २६४ तु० - अध्या० उप० । १.३४ नानाधर्मयुतः अपि च एकः धर्मः अपि उच्यते अर्थः । तस्य एकविवक्षातः, नास्ति विवक्षा खलु शेषाणाम् ॥ नाना धर्मों से युक्त पदार्थ के किसी एक धर्म को ही मुख्यरूपेण कहने वाला (वक्ता का अभिप्राय विशेष') नय कहलाता है, क्योंकि उस समय उसी एक धर्म की विवक्षा होती है, शेष की नहीं। ३८०. अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः, प्रमाणनयसाधनः । ___ अनेकान्तः प्रमाणान्ते, तदेकान्तोऽपितान्नयात् ॥ स्वयंभू स्तोत्र । १०३ तु० = सन्मति तर्क। ३.२७ अनेकान्त भी वास्तव में प्रमाण और नय, इन दो साधनों के कारण अनेकान्तस्वरूप है। सकलार्थग्राही होने के कारण प्रमाण दृष्टि से अनेकान्त की सिद्धि होती है, जबकि किसी एक विवक्षित धर्म को विषय करने वाले विकलार्थग्राही नय से एकान्त की सिद्धि होती है। ३८१. जावंतो वयणपहा, तावंतो वा नया विसद्दाओ। ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदया सव्वे ।। वि० आ० मा० । २२६२ तु० = गो० क०। ८९४-८९५ यावन्तो वचनपथास्तावन्तो, वा नया अपि शब्दात् । त एव च परसमयाः, सम्यक्त्वं समुदिता सर्वे॥ जगत् में जो कुछ भी बोलने में आता है वह सब वास्तव में किसी न किसी नय में गभित है। पृथक् पृथक् रहे हुए ये सभी पर-रामय २. पक्षपात-निरसन ३८२. न समेन्ति न च समेया, सम्मत्तं णेव वत्थुणो गमगा। वत्थुविधाताय नया, विरोहओ वेरिणो चेव ॥ वि० आ० मा० । २२६६ तु० - ध०९। पृ० १८२ न समयन्ति न च समेताः, सम्यक्त्वं नैव वस्तुनो गमकाः । वस्तुविधाताय नया, विरोधतो वैरिण इव ॥ परस्पर विरोधी होने के कारण ये नय या पक्ष क्योंकि एक-दूसरे के साथ मैत्रीभाव से मेल नहीं करते हैं और पृथक्-पृथक् अपने-अपने पक्ष का ही राग अलापते रहते हैं, इसलिए न तो सम्यक्भाव को प्राप्त हो पाते हैं, और न अनेकान्तस्वरूप वस्तु के ज्ञापक ही हो पाते हैं, बल्कि वैरियों की भाँति एक-दूसरे के साथ विवाद करते रहने के कारण वस्तु के विघातक बन बैठते हैं। ३८३. सव्वे समयंति सम्म, चेगवसाओ नया विरुद्धा वि । भिच्च-ववहारिणो इव, राओदासीणवसवत्ती॥ वि० आ० मा०। २२६७ तु० = दे० गा० ३८६ सर्वे समयन्ति समम्यक्त्वं, चैकवशाद नया विरुद्धा अपि । भूत्यव्यवहारिण इव, राजोदासीनवशवर्तिनः ॥ किसी एक स्याद्वादी के वशवर्ती हो जाने पर, परस्पर विरुद्ध भी ये सभी नयवाद समुदित होकर उसी प्रकार सम्यक्त्वभाव को प्राप्त हो जाते हैं, जिस प्रकार राजा के वशवर्ती हो जान पर अनेक अभिप्रायों को रखने वाला भृत्य-समूह एक हो जाता है। अथवा किसी व्यवहारकुशल निष्पक्ष व्यक्ति को प्राप्त हो जाने पर, धन-धान्यादि के अर्थ परस्पर लड़ते हुए अनेक व्यक्ति, युक्ति द्वारा झगड़ा सुलझा देने के कारण परस्पर पुनः मिल जाते हैं। १. प्रमाणनय तत्त्वालंकार । ७.१ २. व्यक्ति सदैव वस्तु के किसी एक अंश को ही लक्ष्य में रख कर बोलता है, इसलिए वे सब बचन-पथ नय में गर्भित हैं। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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