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________________ ७० संयमाधिकार ८ अहिंसा-सूत्र १. संयम-सूत्र १६२. वदसमिदिकसायाणं, दंडाणं इंदियाणं पंचण्डं । धारणपालणणिग्गह, चायजओ संजमो भणिओ ॥ पं० सं०।१२७ तु०मरण समा० । १९५ व्रतसमितिकषायाणां, दण्डानां इन्द्रियाणां पंचानाम् । धारण-पालन-निग्रह-त्याग-जयः संयमः भणितः॥ पंच व्रतों का धारण, पाँच समितियों का पालन, चार कषायों का निग्रह, मन वचन व काय इन तीन दण्डों का त्याग और पाँच इन्द्रियों का जीतना, यह सब संयम कहा गया है। २. अनगार (साधु ) व्रत-सूत्र १६३. हिंसाविरदिसच्चं, अदत्तपरिवज्जणं च बंभं च। संगविमुत्ती य तहा, महव्वया पंच पण्णत्ता ।। मू० आ०1४. (१.६) तु आतुर० प्रत्या०।२-३ हिंसाविरतिः सत्यं अदत्तपरिवर्जनं च ब्रह्म च । संगविमुक्तिश्च तथा महावतानि पंच प्रज्ञप्तानि । हिंसा का त्याग, सत्य बोलना, चोरी का त्याग, ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग, ये पाँच महाव्रत कहे गये हैं। संयमाधिकार ८ अहिंसा-सूत्र १६५. जो मण्णदि हिंसामि य, हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विवरीओ।। स० सा०।२४७ य: मन्यते हिनस्मि हिंस्ये च परैः सत्वैः। ___स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः॥ जो ऐसा मानता है कि मैं जीवों को मारता हूँ अथवा दूसरों के द्वारा उनकी हिंसा कराता हूँ, वह मूढ़ अज्ञानी है । ज्ञानी इससे विपरीत होता है। १६६. रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्तं त्ति देसिदं समये। तेसि चेदुप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहिं णिद्दिट्टा ॥ क.पा०1१।गा० ४२ तु० = उत्तरा० । १९.२६ रागादीनामनुत्पादः अहिंसकत्वमिति देशितं समये। तेषां चैवोत्पत्तिः हिसेति जिनेन निर्दिष्टा ॥ रागद्वेषादि परिणामों का मन में उत्पन्न न होना ही शास्त्र में 'अहिंसा' कहा गया है । और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। [प्रश्न-यदि ऐसा है तो बड़े से बड़ा हिंसक भी अपने को रागद्वेष-विहीन कह कर छुट्टी पा लेगा?] १६७. मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। प्र० सा० । २१७ तु० = अध्या० सा० । १८.१०४ म्रियतां वा जीवतु वा जीवोऽयताचारस्य निश्चिता हिंसा। प्रयत्नस्य नास्ति बंधो हिंसामात्रेण समितस्य ।। जीव मरे या जीये, इससे हिंसा का कोई सम्बन्ध नहीं है। यत्नाचार-विहीन प्रमत्त पुरुष निश्चित रूप से हिसक है। और जो प्रयत्न ३. अहिंसा-सूत्र १६४. जले जीवाः स्थले जीवाः, आकाशे जीवमीलनि। ___जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः ।। जैनागमों में स्याद्वाद, भाग १ पृ०३० पर उद्धृत। तु०रा० वा० । ७. १३-१२ में उद्धृत जल में जीव है, स्थल पर जीव हैं, आकाश में भी सर्वत्र जीव ही जीव भरे पड़े हैं। इस प्रकार जीवों से ठसाठस भरे इस लोक में भिक्षु अहिंसक कैसे रह सकता है ? (आगे तीन गाथाओं में इसी शंका का ___dan Education समाधान किया गया है।) १. तत्त्वतः मृत्यु व जन्म कुछ है ही नहीं। For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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