SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ साधनाधिकार ७ शल्योद्धार निःशल्यस्येव पुनः, महाव्रतानि भवन्ति सर्वाणि । व्रतमुपहन्यते तिसृभिस्तु, निदान-मिथ्यात्व-मायाभिः॥ शल्यों के अभाव में ही 'व्रत' व्रत संज्ञा को प्राप्त होते हैं, क्योंकि शल्यों से रहित यति के सम्पूर्ण महाव्रतों का संरक्षण होता है। जिन्होंने शल्यों का आश्रय लिया, उन दम्भाचारियों के व्रत माया मिथ्या व निदान से नष्ट हो जाते हैं। १६०. जह कंटएण विद्धो, सव्वंगे वेयणदिओ होइ। तह चेव उद्वियंमि, उ निसल्लो निव्वओ होइ।। मरण समा०। ४९ तु० स० सि०। ७.१८ यथा कष्टकेन विद्धः, सर्वेष्वंगेषु वेदनादितो भवति । तथैव उद्धृते निश्शल्यो, निवृत्तो (निर्वातः) भवति ॥ जिस प्रकार शरीर में कहीं काँटा चुभ जाने पर सारे शरीर में वेदना व पीड़ा होती रहती है, उसी प्रकार उसके निकल जाने पर वह निःशल्य होकर पीड़ा से मुक्त हो जाता है । १६१. अगणिअ जो मुक्खसुह, कुणइणिआणं असारसुहहेउं । सो कायमणिकएणं, वेरुल्लियमणि पणासेइ । भक्त परि० । १३८ तु०म० आ० । १२२३ अगणयित्वा यो मोक्षसुखं, करोति निदानमसारसुख हेतोः। स काचमणिकृते, बैडूर्यमणि प्रणाशयति ॥ मोक्ष के अद्वितीय सुख को न गिनकर जो असार ऐन्द्रिय सुख के लिए निदान करता है, वह मूर्ख काँच के लिए वैडूर्यमणि को नष्ट करता है। आत्मसंयम अधिकार (विकर्म-योग) कर्म-योग की इस साधना के लिए शास्त्रविहित अनेकविध विकर्म अपेक्षित हैं, जिनमें अहिंसादि पाँच व्रत या यम प्रधान हैं। चलने बोलने खाने आदि में योगी की जो यत्नाचारी प्रवृत्ति होती है, उसे शास्त्र में पंच समिति कहा गया है, और मन वचन काय का गोपन या नियंत्रण तीन गुप्तियाँ कहलाती हैं। गृहस्थ भी यथाशक्ति इनका पालन करता है और इनकी रक्षार्थ अन्य भी अनेक कर्म करता है। यथा : इच्छाओं को सीमित करने के लिए व्यापार-क्षेत्र को परिमित करना, दिन में तीन तीन बार सामायिक या समता का अभ्यास करना, इत्यादि । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy