SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अने० अधि०१५ १५८ अनेकान्त निर्देश तस्माद् वस्तूनामेव, यः सदृशः पर्ययः स सामान्यम् । यो विसदृशो विशेषः, स मतोऽनन्तरं ततः॥ प्रत्येक वस्तु में दो अंश होते हैं। सदृश रूप से सदा अनुगत रहनेवाला गुण तो सामान्य अंश है और एक-दूसरे से विसदश ऐसी बाल-वृद्धादि पर्याय विशेष अंश हैं। दोनों एक-दूसरे से पृथक् कुछ नहीं है । ( इसलिए वस्तु सामान्यविशेषात्मक है।) ३७१. वृद्धैः प्रोक्तमतः सूत्रे, तत्त्वं वागतिशायि यत। द्वादशांगबाह्यं वा, श्रुतं स्थूलार्थगोचरम् ।। पं०प०। उ०। ६१६ तत्त्व वास्तव में वचनातीत है। द्वादशांग वाणी अथवा अंगबाह्य रूप विशाल आगम केवल स्थूल व व्यावहारिक पदार्थों को ही विषय करता है। ४. अनेकान्त-निर्देश ३७२. न पश्यामःक्वचित् किंचित, सामान्यं वा स्वलक्षणम् । जात्यन्तरं तु पश्यामः, ततोऽनेकान्त हेतवः ।। सि० वि० । २.१२ तु०-दे० गा०३७० (सामान्य व विशेष आदि रूप ये सब विकल्प वास्तव में विश्लेषण कृत हैं) वस्तु में देखने पर न तो वहां कभी कुछ सामान्य ही दिखाई देता है और न कुछ विशेष ही। वहाँ तो इन सब विकल्पों का एक रसात्मक अखण्ड जात्यन्तर भाव ही दृष्टिगोचर होता है, और वही अनेकान्त का हेतु है। ३७३. यदेव तत्तदेवातत्, यदेवकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवा___ सत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यम् । इत्येकवस्तुनि वस्तु त्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ।। स० सा० । आ० । परिशिष्ट तु० = स्याद्वाद मंजरी। ५ की टीका ____ जो अखण्ड तत्त्व स्वयं तत् स्वरूप है, वहीं अतत् स्वरूप है । जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य १. खट्टे मीठे आदि से रहित रस नामक गुण और जिला के विषयभूत रस गुण से व्यतिरिक्त खटु मीठे खाद अवस्तुभूत है। अने० अधि०१५ १५९ अने० को सार्वभौमिकता है। इस प्रकार वस्तु में वस्तुत्व का दर्शन करानेवाली परस्पर विरुद्ध अनेक शक्तियुगलों का प्रकाशित करना ही अनेकान्त का लक्षण है। ५. अनेकान्त को सार्वभौमिकता ३७४. यत्सूक्ष्मं च महच्च शून्यमपि यन्नो शून्यमुत्पद्यते, नश्यत्येव न नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव च । एकं यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्ते प्रतीति दृढ़ां, सिद्ध ज्योतिरमूर्ति चित्सुखमयं केनापि तल्लक्ष्यते ।। पं० वि०। ८.१३ सिद्ध ज्योति अर्थात् शुद्धात्मा सूक्ष्म भी है और स्थूल भी, शून्य भी है और परिपूर्ण भी, उत्पन्नध्वंसी भी है और नित्य भी, सत् भी है और असत् भी, तथा एक भी है और अनेक भी। दृढ़ प्रतीति को प्राप्त वह किसी बिरले ही योगी के द्वारा देखी जाती है । ३७५. अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च। अहमानन्दानानन्दौ । अहं विज्ञानाविज्ञाने । अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये । अहं पंचभूतान्यपंचभूतानि । अहमखिलं जगत्। वेदोऽअमवेदोऽहम् । विद्याहम विद्याहम् । अजाहमनजाहम्। अधश्चोय च तिर्यकचाहम् । दुर्गा सप्तशती। देव्यथर्वशीर्षम् । ___ में ब्रह्मस्वरूपिणी हूँ। मुझसे ही प्रकृति पुरुषात्मक यह सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है। में आनन्दरूपा हूँ और अनानन्दरूपा भी। मैं विज्ञानरूपा हूँ और अविज्ञानरूपा भी। में जानने योग्य ब्रह्मस्वरूपा हूँ और अब्रह्मस्वरूपा भी। पंच महाभूत भी में हूँ और अपंच महाभत भी। यह सारा दश्य जगत में ही हैं। वेद और अवेद में हैं। विद्या और अविद्या भी में हैं। अजा और अनजा भी में हूँ। नीचे भी मैं हूँ तथा ऊपर तथा अगल-बगल भी मैं ही हूँ। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy