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________________ समुदित किये बिना उसका दर्शन सम्भव नहीं। सर्वधर्म समभाव की यह परमोज्ज्वल भावना ही जैन दर्शन के विशाल व उदार हृदय की द्योतक है। प्रायः सभी दर्शनों व धर्मों ने यद्यपि यथावकाश किसी न किसी रूप में इस दृष्टि को स्वीकार किया है, परन्तु सांगोपांग सिद्धांत अथवा प्रणाली के रूप में इसे प्रस्तुत करने का श्रेय केवल जैन-दर्शन को ही प्राप्त है, जिसके कारण यह सदा गौरवान्वित होता रहेगा। व्यक्ति सरलता से अपने तात्त्विक जीवन का अध्ययन करके हेयोपादेय का यथार्थ विवेक जागृत कर सके, इस उद्देश्य से नव तत्त्वों के रूप में जीवन का सुन्दर विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। जीव और अजीब ये दो मूल तत्त्व व्यक्ति को देहादि पौद्गलिक प्रपंच से भिन्न अन्तर्चतना का दर्शन कराते हैं। आस्रव, पुण्य, पाप तथा बन्ध ये चार तत्व उसके द्वारा नित्य किये जानेवाले बन्धनकारी कर्मों का तथा उनके कारणभूत राग-द्वेषादि का परिचय देते हैं। संवर व निर्जरा तत्त्व उस साधना की ओर निर्देश करते हैं, जिसके द्वारा जीव इन महा शत्रओं को जीतकर 'स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है, जो 'मोक्ष' नामक अन्तिम आनन्दपूर्ण अवस्था का ही द्योतक है। __ जनदर्शन में 'धर्म' शब्द का अर्थ अति-व्यापक एवं वैज्ञानिक है। धर्म स्वभाववाची शब्द है। आत्मा का स्वभाव है मोह क्षोभविहीन समता-परिणाम। यही इसका धर्म है और यही परमार्थ चारित्र । अन्य सर्व विस्तार संस्कारों के नीचे दबे पड़े इसी स्वभाव को हस्तगत करने की साधना के लिए हैं। ज्ञान को परमार्थ की ओर सदा जागृत रखना और शास्त्र-विहित कर्मों के प्रति प्रमाद न करना, इस प्रकार अन्ध-पंग न्याय से ज्ञान व कर्म दोनों से उसकी अभिव्यक्ति सम्भव है--न अकेले ज्ञान से और न अकेले कर्म से ! 'सम्यग्दर्शन' श्रद्धा, बहुमान, रुचि व भक्तिरूप हार्दिक भाव जागृत करके इन्हें सरस बना देता है। और यही है जैन का त्रिमुखी मोक्षमार्ग-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । __ यद्यपि हितमार्ग में इतना पर्याप्त है, परन्तु जैनदर्शन की महत्ता इससे बहुत आगे उस 'स्याद्वाद'-दृष्टि में निहित है, जिसके द्वारा यह त्रिलोक व त्रिकालवर्ती सकल दर्शनों व धर्मों को आत्मसात् कर लेता है, जिसकी दृष्टि में स्व-पक्ष पोषणार्थ किसी भी अन्य दर्शन या धर्म का निषेध करना एकान्त मिथ्यात्व नामक महापाप है। तत्त्व अनन्त धर्मात्मक होने से अनेकान्त स्वरूप हैं इसलिए सभी दृष्टियों को Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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