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मिथ्यात्व अधि०१
दैत्यराज मिथ्यात्व यदिदं जगति पृथक् जनाः, कर्मभिलृप्यन्ते प्राणिनः । स्वयमेव कृताहन्ते, नो तस्य मुच्येतास्पृष्टः॥
इस संसार के समस्त प्राणी अपने ही कर्मों के द्वारा दुःखी हो रहे हैं। अन्य कोई भी सुख या दुःख देनेवाला नहीं है। कर्मों का फल भोगे बिना इनसे छुटकारा सम्भव नहीं।
मिथ्यात्व अधि०१
. दुःख हेतु-कर्म ९. जह निबदुमुप्पण्णो, कीडो कडुयंपि मण्णए महुरं।
तह मुक्खसुहपरुक्खा, संसारदुहं सुहं विति ॥ मरण समा० । ६५५ तु क० पा०।१। गा० १२० । १०२७२
यथा निम्बद्रुमोत्पन्नः, कोटः कटुकमपि मन्यते मधुरम्।। तथा परोक्षमोक्षसुखाः, संसार-दुःखं सुखं ब्रुवते॥
जिस प्रकार नीम के वृक्ष में उत्पन्न कीड़ा उसके कड़वे स्वाद को भी मधुर मानता है, उसी प्रकार मोक्ष गत परमार्थ सुख से अनभिज्ञ प्राणी इस संसार-दुःख को ही सुख कहता है। ५. एक महान् आश्चर्य १०. ( क ) दवम्गिणा जहा रण्णे, डज्झमाणेसु जंतुसु ।
अण्णे सत्ता पमोयंति, रागद्दोसवसं गया । १०. ( ख ) एवमेव वयं मूढा, कामभोगेसु मुच्छिया । डज्झमाणं ण बुज्झामो, रागद्दोसऽग्गिणा जगं ॥
उत्तरा० । १४.४२-४३ दवाग्निना यथाऽरण्ये, दह्यमानेषु जन्तुषु। अन्ये सत्त्वाः प्रमोदन्ते, रागद्वेषवशंगताः॥ एवमेव वयं मूढाः, कामभोगेषु मूच्छिताः। दह्यमानं न बुध्यामो, रागद्वेषाग्निना जगत् ॥
जिस प्रकार वन में अग्नि लग जाने पर उसमें जलते हुए जीवों को देखकर दूसरे जीव रागद्वेषवश प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार काम-भोगों में मूर्छित हम सब मूर्ख जन यह नहीं समझते कि ( हम सहित ) यह सारा संसार ही राग-द्वेषरूपी अग्नि में नित्य जला जा रहा है। ६. दुःख-हेतु-कर्म ११. जमिणं जगई पुढो जगा, कम्मेहि लुप्पति पाणिणो।
सयमेव कडेहि गाहई, नो तस्स मुच्चेज्जपुठ्ठयं ।। सू० कृ०॥ १.२.१.४
तुलना=रा० वा० । ५.२४.९
७. अपना शत्रु-मित्र स्वयं १२. अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहाधेण, अप्पा मे नंदणं वणं ।।
उत्तरा० । २०.३६ आत्मा नदी वैतरणी, आत्मा मे कूटशाल्मली। आत्मा कामदुधाधेनुः, आत्मा मे नन्दनं वनम् ॥
आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही शाल्मली वृक्ष । आत्मा ही कामधेनु है और आत्मा ही नन्दन-वन । १३. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पठिय-सुपठिय ।।
उत्तरा० । २०.३७ आत्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च । आत्मा मित्रममित्रञ्च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थितः॥
आत्मा ही अपने सुख व दुःख को सामान्य तथा विशेष रूप से करनेवाला है, और इसलिए वही अपना मित्र अथवा शत्रु है। सुकृत्यों में स्थित वह अपना मित्र है और दुष्कृत्यों में स्थित अपना शत्रु । ८. दैत्यराज मिथ्यात्व ( अविद्या ) १४. मिच्छत वेदंतो जीवो, विवरीयदंसणो होइ। ____ण य धम्म रोचेदि हु, महुरं पि रसं जहा जरिदो। पं० सं० । १.६
तु०-उत्तरा। ७.२४
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