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________________ सृष्टि-व्यवस्था अधि० १४ १४८ १. स्वभाव कारणवाद ( सत्कार्यवाद ) ३४६. भावस्स णत्थि णासो, णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो । गुणपज्जयेसु भावा, उप्पादवए पकुब्वंति ॥ पं० का० । १५ भावस्य नास्ति नाशो नास्ति अभावस्य चैव उत्पादः । गुणपर्यायेषु भावा, उत्पादव्ययान् प्रकुर्वन्ति ॥ सत् का नाश और असत् का उत्पाद किसी काल में भी सम्भव नहीं । सत्ताभूत पूर्वोक्त जीवादि षट् विध पदार्थ अपने गुणों व पर्यायों में स्वयं उत्पन्न होते रहते हैं और विनष्ट होते रहते हैं । ३४७. अण्णोष्णं पविसंता, दिता मेलंता वि य णिच्चं, सगं पं० का० । ७ स्वभाव कारणवाद ओगास मण्णमण्णस्व । सभावं ण विजर्हति ॥ तु० - सन्मति । ३.५ ददन्त्यवकाशमन्योऽन्यस्य । अन्योऽन्यं प्रविशन्ति, मिलन्त्यपि च नित्यं स्वकं स्वभावं न विजहन्ति ॥ ये छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करके स्थित हैं, अपने भीतर एक दूसरे को अवकाश देते हैं। क्षीर-नीरवत् परस्पर में मिल कर एकमेक हो जाते हैं। इतना होने पर भी ये कभी अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं । ३४८. उप्पज्जंतो कज्जं, कारणमप्पा णियं तु जणयंतो । तम्हा इह ण विरुद्ध, एगस्स वि कारणं कज्जं ॥ न० च० । ३६५ उत्पद्यमानः कार्य, कारणमात्मा निजं तु जनयन् । तस्मादिह न विरुद्ध एकस्यापि कारणं कार्यम् ॥ प्रत्येक द्रव्य में उत्पद्यमान उसकी पर्याय तो कार्य है और उसे उत्पन्न करने वाला वह द्रव्य उसका कारण है। इस प्रकार एक ही Jain Education International १. विशेष ३० गा० ३६४-३६५ २. चेतन जीव चेतन ही रहता है, और पुद्गल आदि अपने रूप ही । सृष्टि-व्यवस्था अधि० १४ १४९ पुद्गल कर्तृत्ववाद पदार्थ का कार्यरूप व कारणरूप होना विरोध को प्राप्त नहीं होता । ( जिससे उसे अपनी सृष्टि के लिए किसी अन्य कारण का अन्वेषण करना पड़े।) २. पुद्गल कर्तृत्ववाद ( आरम्भवाद) ३४९. एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खतं । परिणामादो भणिदं जाव अनंतत्तमणुभवदि ॥ ३५०. गिद्धा वा लुक्खावा अणुपरिणामा सभा वा विसमा वा । समदो दुराधिगा जदि बज्झति हि आदिपरिहीणा || ३५१. दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा संसंठाणा । पुविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहि जायंते || प्र० स० । १६४, १६५, १६७ एकोत्तरमेकाद्यणोः स्निग्घत्वं च रूक्षत्वम् । परिणामाद्भणितं यावदनन्तत्वमनुभवति ॥ स्निग्धा वा रूक्षा वा अणुपरिणामाः समा वा विषमा वा । समतो द्वधिका यदि बध्यन्ते हि आदिपरिहीनाः ॥ द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः सूक्ष्माः वा बादराः ससंस्थानाः । पृथिवीजलतेजोवायवः स्वक परिणामर्जायन्ते ॥ [जैन-दर्शन-मान्य स्वभाववाद की इस प्रक्रिया में पुद्गल (जड़) तत्व भी बिना किसी चेतन की सहायता के स्वयं ही पृथिवी आदि महाभूतों के रूप में परिणमन कर जाता है। सो कैसे, वही प्रक्रिया इन गाथाओं द्वारा बतायी गयी है। ] परमाणु के स्पर्श-गुण की दो प्रधान शक्तियाँ हैं--स्निग्धत्व व रूक्षत्व अर्थात् ( Attractive force and Repulsive / force ) | ये दोनों सदा स्वतः एक अंश से लेकर दो तीन संख्यात असंख्यात व अनन्त अंशों तक हानि व वृद्धि का अनुभव करती रहती हैं। परिणामतः अनेक परमाणु तो समान अंशधारी स्निग्ध अथवा समान अंशवारी रूझ हो जाते हैं, तथा अनेक असमान अंशवाले हो जाते हैं। दो अंशों का अन्तर होने तक तो वे परस्पर बन्ध के योग्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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