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________________ तत्त्वाधिकार १३ १३६ आस्रव तत्त्व [भले इस जीव की तात्विक व्यवस्था समझाने के लिए पूर्वोक्त प्रकार व्यवहार से नौ तत्त्वों का विवेचन किया गया हो, परन्तु निश्चय से तो पर्याय-प्रधान' होने के कारण ] जीवादि नौ तत्त्व आत्मा से बाह्य हैं। कर्मों की उपाधि से उत्पन्न होने वाले समस्त व्यावहारिक गुणों व पर्यायों से व्यतिरिक्त, एक मात्र शुद्धात्म-तत्त्व ही उपादेय है, इसके अतिरिक्त सब हेय हैं। ३. आस्रव तत्त्व ( क्रियमाण कर्म) ३१६. रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माई । आसवदारेहि अविगुहेहि, तिविहेण करणेणं ।। मरण समाधि। ६१२ तु० = त० सू०। ६.१-२ रागद्वेषप्रमत्तं, इंद्रियवशगः करोति कर्माणि । आस्रवद्वारैरविगहि - तैस्त्रिविधेन करणेन ॥ राग-द्वेष से प्रमत्त जीव इन्द्रियों के वश होकर मन, बचन व काय इन तीन करणों के द्वारा सदा कर्म करता रहता है। कर्मों का यह आगमन ही 'आस्रव' शब्द का वाच्य है, जिसके अनेक द्वार हैं। ३१७. इंदिय कसायअव्वय, जोगा पंचचउपंचतिन्नि कमा। किरिआओ पणवीस, इमाउताओ अणुक्कमसो।। नव तत्व प्रकरण। ९० तु०- त० सू० । ६.५ इन्द्रियकषायावतयोगाः, पंचचतुः पंचत्रिकृताः । कियाः पंचविंशतिः, इमास्ताः अनु क्रमशः। पाँच इन्द्रिय, क्रोधादि चार कवाय, हिंसा, असत्य आदि पाँच अव्रत तथा पचीस प्रकार की सावध क्रियाएँ, ये सब आस्रव के द्वार हैं। इनके कारण ही जीव कर्मों का संचय करता है। ३१८. आसवदारेहि सया, हिंसाईएहिं कम्ममासवइ । जह नावाइ विणासो, छिद्देहि जलं उयहिमज्झे । मरण समाधि। ६१८ तु० = रा० वा० । १.४.९, १६ ___Jan Education internat...दे० २८-२९ २. देगा .२६७-३७० तत्त्वाधिकार १३ १३७ संबर तत्त्व आस्रवद्वारः सदा, हिंसादिकः कर्ममास्रवति । यथा नावो विनाशश्छि ड्रैरुदधिमध्ये जलमास्रवन्त्याः॥ हिंसादिक इन आस्रव-द्वारों के मार्ग से जीव के चित्त में कर्मों का प्रवेश इसी प्रकार होता रहता है, जिस प्रकार समुद्र में सछिद्र नौका जल-प्रवेश के कारण नष्ट हो जाती है। ३१९. जो सम्म भूयाई पासइ, भए य अप्पभूए य । कम्ममलेण ण लिप्पइ, सो संवरियासवदुवारो ॥ मरण-समाधि । ६२४ तु० - स० सा०।७३-७४ यः सम्यग्भूतान् पश्यति, भूतांश्चात्मभूतांश्च । कर्ममलेन न लिप्यते, स संवृत्तास्रवद्वारः॥ जो आत्मभूत और अनात्मभूत सभी पदार्थों को तत्त्व-दृष्टि से देखता है, वह कर्म-मल से लिप्त नहीं होता, क्योंकि उसके समस्त आस्रव-द्वार रुक जाते हैं। ४. संवर तत्त्व (कर्म-निरोध) ३२०. रुधिय छिद्दसहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि । मिच्छ त्ताइअभावे, तह जीवे संवरो होई ॥ न० च०।१५६ तु० = दे० गा० ३२१ रुन्धित्वा छिद्र सहस्राणि, जलयाने यथा जलं तु नास्त्रवति । मिथ्यात्याद्यभावे, तथा जीवे संवरो भवति । जिस प्रकार नाव का छिद्र बन्द हो जाने पर उसमें जल प्रवेश नहीं करता, उसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, कपाय व इन्द्रिय आदि पूर्वोक्त आस्रव-द्वारों के रुक जाने पर कर्मों का आस्रव भी रुक जाता है। और यही उनका संवरण या संवर कहलाता है। ३२१. पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ। __अगारवो य निस्सल्लो, जोवो हवइ अणासओ ॥ उत्तरा०। ३०.३ तु० - द्र०सं०।३५ For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001976
Book TitleJain Dharma Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year
Total Pages112
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size7 MB
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