Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 108
________________ १९३ अस्तेय-विना दी वस्तु में ग्रहण का उपवहंणत्व-दम्भाचार को छोड़कर भाव न होना। (१७१) सम्यक् प्रकार निज गुणों में वृद्धि परिशिष्ट:२ अहिंसा-किसी को न मारना व्यवहार करना। (६४-६८) पारिभाषिक शब्द-कोश अहिंसा है और राग-द्वेष का उपशम-निर्मदता। (६२) उत्पन्न न होना निश्चय अहिंसा उपाध्याय-अध्ययन-अध्यापन करने में अंक गाथाओं के हैं कुशल साधु । (१) अचित्त-निर्जीव पदार्थ (१७०) आकाश-अचेतन अमूर्तिक व विभु ऊवं लोक-लोककाश का ऊर्ध्ववर्ती अन्यत्व भावना-अपने को देहादि से द्रव्य । (३०१) वह भाग जहाँ कि देवों का निवास अजीव-जीव के अतिरिक्त पुदगल आदि भिन्न देखना। (१०७) आकिंचन्य-निर्मम भाव । (२८४) है। (११०) पाँच द्रव्य अचेतन होने से अजीव अपरम भाव-योगी जब तक पूर्ण-काम आचार्य-साधु-संघ के नायक। (१) ऊनोदरी-ग्रास ग्रास करके भोजन को कहलाते हैं। (३१३) नहीं हो जाता (३०) आत्मा-दे० जीव घटाना। (२०७) अणुव्रत-अहिंसा, सत्य आदि पांच मूल अपेक्षा-एक पदार्थ या धर्म की अपेक्षा व्रत ही एकदेश रूप पालन होने दूसरे का परत्वापरत्व । आदाननिक्षेपण समिति-पदार्थों को ऋजसूत्र-क्षणवर्ती कार्य को ही पूर्ण तत्त्व देखनेवाली दृष्टि । (३८९) पर अणुव्रत कहलाते हैं । (१८०) देख भालकर उठाना घरना। अप्रमाद-पारमार्थिक जागरूकता अधर्म द्रव्य-लोकाकाश प्रमाण एक एकत्व-सब पर्यायों में अनुगत मूल तत्त्व (१४५); दैनिक क्रियाओं के अमूर्तिक द्रव्य, जो जीव व आर्जव-मायाविहीन शिशुवत् सरल की एकता (४); जगत् में जीव प्रति सावधानी । (१५१) पुद्गलों की स्थिति में उदासीन भाव । (२७३-२७४) का तात्त्विक एकाकीपन । (१०५) अमढ़वष्टित्व-स्व-धर्म-निष्ठा । (६०) हेतु है। (३०४) अलोक-पट् द्रव्यमयी लोक-भाग को आवश्यक कर्म-साधु के करने योग्य छह एकान्त-अनेक धर्मात्मक वस्तु में से अधोलोक-लोकाकाश का अधःवर्ती वह आवश्यक कर्म--वन्दना, स्तुति, किसी एक धर्म को ही ग्रहण छोड़कर उसके बाहर का अनंत भाग जिसमें नारकीयों का वास समता, प्रतिक्रमण, कायोत्सगं व करनेवाली दृष्टि या पक्षपात । आकाश । (३०२) (३८२) स्वाध्याय । (१४८) है। (११०) __ अशरणत्व-आत्मा व धर्म के अतिरिक्त अनर्थदण्ड-निष्प्रयोजन किया गया आस्तिक्य-तत्त्व व अतत्त्व में विवेक ऐरावत क्षेत्र-जम्बूद्वीप का उत्तरवर्ती जगत् में कुछ भी शरणभूत नहीं कोई भी कार्य (१८४) भाव । (७४) क्षेत्र । (४०९). है। (१०४) अनशन-खान पान आदि चारों प्रकार अशचित्व भावना-शरीर के अशुचि आत्रव-क्रियमाण कर्म-संस्कारों का एषणा समिति-यथालब्ध आहार में सन्तोष रखना। (१९५) के आहार का पूर्ण त्याग (२०८) आगमन । (३१६-१८) स्वभाव को देखकर इससे विरक्त अनागार धर्म-निर्ग्रन्थ अर्थात् साधु का तप- आहारक शरीर-ऋद्धि-प्राप्त औदारिक शरीर-दृष्ट स्थूल शरीर । होना। (१०९) धर्म (२४७) स्वियों का एक विशेष अदृष्ट (२९८) अशुभोपयोग-हिंसा आदि रूप मानसिक अनित्यत्व भावना-बारह अनुप्रेक्षाओं प्रवृत्ति । (१११) शरीर। (२९८) करोति क्रिया-फलेच्छा सापेक्ष साहमें से प्रथम, देहादि की अनित्यता अस्तिकाय-त्रिकालावस्थायी होने से ईर्या समिति-जीव-जन्तुओं को बचाते कार कर्म। ( १४६) का चिंतन (१०१) छहों द्रव्य अस्तित्व स्वभावी हैं, हुए देखभाल कर चलना। कर्म-राग-द्वेषादि तो भाबकर्म है, और अनेकान्त-नित्यत्व-अनित्यत्व आदि परन्तु अणु परिमाण होने से काल इनके निमित्त से संचित किन्हीं अनेक विरोधी धर्मों से गुम्फित द्रव्य कायवान नहीं है । शेष पाँच उपगृहन-अपने गुणों का व अन्य के सूक्ष्माणुओं का संश्लेप द्रव्यकर्म वस्तु का एकरसात्मक जात्यन्तर विभु व मध्यम परिमाण-युक्त होने दोषों का गोपन । (७२) है। (३५३) भाव। (३७४-३७७) से कायवान भी हैं। (२८८) १३ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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