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तत्वाधिकार १३
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पुण्य-पाप तत्त्व पंचसमितित्रिगुप्तः, अकषायो जितेन्द्रियः ।
अगौरवश्च निश्शल्यः, जीवो भवत्यनास्रवः॥ पाँच समिति, तीन गुप्ति, कषायनिग्रह, इन्द्रिय-जय, निर्भयता, निश्शल्यता' इत्यादि संवर के अंग हैं, क्योंकि इनसे जीव अनास्रव हो जाता है। ३२२. नाणेण य झाणेण य, तवोबलेण य बला निरंभति।
इंदियविसयकसाया, धरिया तुरगा व रज्जूहिं । मरण समाधि। ६२१
तु० - म० आ०।१८३७ कानेन च ध्यानेन च, तपोबलेन च बलान्निरुध्यन्ते।
इन्द्रियविषयकषाया, धृतास्तुरगा इव रज्जुभिः॥ जिस प्रकार घोड़े को लगाम के द्वारा बलपूर्वक वश में किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञान, ध्यान व तप के द्वारा इन्द्रिय- विषय व कषायों को बलपूर्वक वश करना चाहिए। ३२३. जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्वदम्वेसु ।
णासवदि सुहं असुहं, समसुहदुक्खस्स भिवखुस्स ।। पं०का०। १४२
तु० - दे० गा०३१९ यस्स न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा सर्वद्रव्येषु ।
नास्रवति शुभाशुभं, समसुखदुःखस्य भिक्षो॥ परन्तु परम भाव को प्राप्त समता-भोगी जिस भिक्षु को किसी भी द्रव्य के प्रति न राग शेष रह गया है और न द्वेष व मोह, उसके बिना किसी प्रयास के ही शुभ व अशुभ कर्मों का आस्रव रुक जाता है। ५. पुण्य-पाप तत्त्व (दो बेड़ियाँ) ३२४. कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं ।
कह तं होदि सुसील, जं संसारं पवेसेदि । स० सा०।१४५
तु० - अध्या० सा०। १८.६०
तत्त्वाधिकार १३
पुण्य-पाप तत्त्व कर्ममशुभं कुशोलं, शुभकर्म चापि जानीहि सुशीलं ।
कथं तद्भवति सुशीलं, यत्संसारं प्रवेशयति ॥ अशुभ कर्म कुशील है और शुभ कर्म सुशील है, ( ऐसा भेद व्यावहारिक जनों को ही शोभा देता है ) समता-भोगी के लिए कोई भी कर्म जो संसार में प्रवेश कराये, सुशील कैसे हो सकता है ? ३२५. सोवणियं पिणियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं।
बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।। स० सा०। १४६
तु० - अध्या० सा०। १८.६१ सौणि कमपि निगलं बध्नाति कालायसमपि च यथा पुरुषं । बध्नात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म ॥ जिस प्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, उसी प्रकार मोने को बेड़ी भी बांधती है। इसलिए परमार्थतः शुभ व अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म जीव के लिए बन्धनकारी हैं। ३२६. वर जिय पावइँ सुन्दरइँ, णाणिय ताँई भणंति । जीवहँ दुक्खइँ जणिवि लहु, सिवमइ जाइँ कुणंति ॥
प०प्र० । २.५६ वरं जीव पापानि सुन्दराणि, ज्ञानिनः ताणि भणन्ति ।
जीवानां दुःखानि जनित्वा लघु, शिवमति यानि कुर्वन्ति । ज्ञानी की दृष्टि में तो वह पाप भी बहुत अच्छा है, जो जीव को दुःख व विषाद देकर उसकी बुद्धि को मोक्षमार्ग की ओर मोड़ देता है। ३२७. मं पुणु पुण्णइँ भल्ला', णाणिय ताइँ भणंति । जीवहं रज्जइँ देवि लहु, दुक्खइँ जाई जणंति ।।
प०प्र०। २.५७ मा पुनः पुण्यानि भद्राणि, ज्ञानिनः तानि भणन्ति ।
जीवस्य राज्यानि दत्वा लघु, दुःखानि यानि जनयन्ति ।
और फिर वह (पापानुबन्धी) पुण्य भी किसी काम का नहीं, जो For Private & Personal uon o उसं राज्य-सुख देकर उसमें आसक्ति उत्पन्न करा देता है, जिसके कारण
Jan Education internatk..दे० अधिकार ८ ।
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