Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 97
________________ : १७: स्याद्वाद अधिकार (सर्वधर्म-समभाव) 'अनेकान्त' वस्तु का स्वरूप है और स्याद्वाद उसे कहने की न्यायपूर्ण पद्धति । 'स्थाद्' यह निपात 'कथंचित्' अर्थ का द्योतक है। वाक्य में प्रयुक्त यह शब्द जहाँ अभिप्रेत धर्म को मुख्य करता है, वहाँ साथ ही साथ अन्य धर्म का लोप भी होने नहीं देता है। 'स्याद्वस्तु नित्यव' इस वाक्य का स्पष्ट अर्थ यह है कि किसी एक अपेक्षा से वस्तु नित्य अवश्य है। इसी का अनुक्त अर्थ यह भी है कि किसी अन्य अपेक्षा से वह अनित्य भी अवश्य है। इस प्रकार यह पद्धति अभिप्रेत व अनभिप्रेत सभी धर्मों को समानभाव से आत्मसात् कर लेती है। और यही है इस न्याय की व्यापकता, विशालता व उदारता। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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