Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 99
________________ १७५ स्याद्वाद अघि०१७ १७४ स्याद्वादन्याय प्रकार प्रत्येक पद का वाच्य एक तथा अनेक दोनों होते हैं। एक धर्म का कथन करते समय सहवर्ती दूसरे धर्म का लोप होने न पावे इस अभिप्राय से स्याद्वादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात्कार का प्रयोग करता है। यह निपात गौणीभूत धर्म की अपेक्षा न करते हुए भी उसका सर्व लोप होने नहीं देता है। ४०५. वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये । कर्तव्यमन्यथाऽनुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् ।। सर्वथा तत्प्रयोगेऽपि सत्वादिप्राप्तिविच्छेदे । स्यात्कारः संप्रयुज्येतानेकान्तद्योतकत्वतः ।। श्लो० वा० । २.१.६ । श्लो० ५३-५४ तु. = स्याद्वाद मंजरी । २३ स्याद्वाद अधि०१७ स्याद्वाद-योजना-विधि ३. स्याद्वाद-योजना-विधि ४०७. जीवे णं भन्ते गभं वक्कममाणे कि सेयं दिए वक्कमइ अणिदिए वक्कमइ ? गोयमा ! सिय सेइंदिए वक्कमइ, सिय अणिदिए वक्कमइ। से केणठेणं भंते ? गोयमा ! दव्विंदियाइं पडुच्च अणिदिए वक्कमइ, भाविदियाइ पडुच्च सेइंदिए वक्कमइ। से तेणठेणं गोयमा। व्याख्या प्रज्ञप्ति । १.७ सूत्र ६१ जीवो ननु भगवन् ! गर्भोपक्रममाण: कि सेन्द्रियोपकामति अनिन्द्रियोऽपक्रामति (वा)? गौतम ! स्यात् सेन्द्रियोऽपक्रामति स्यात् अनिन्द्रियोऽपक्रामति । तत् केनार्थेन भगवन् ? गौतम! द्रव्येन्द्रियाणि प्रतीत्य अनिन्द्रियोपक्रामति, भावेन्द्रियाणि प्रतीत्य सेन्द्रियोऽपक्रामति । तत्तेनाऽर्थेन गौतम ! प्रश्न :-हे भगवन्, यह जीव जब गर्भ में आता है तब इन्द्रियों सहित आता है, अथवा इन्द्रियों रहित आता है? उत्तर :-हे गौतम ! कथंचित् इन्द्रियों सहित आता है, और कथंचित् इन्द्रियों रहित आता है। प्रश्न :-सो कैसे भगवन् ? उत्तर :-हे गौतम ! द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा इन्द्रियों रहित आता है और भावेन्द्रियों की अपेक्षा इन्द्रियों सहित आता है। . अनिष्टार्थ की निवृत्ति के लिए वाक्य में एवकार का प्रयोग अवश्य करना चाहिए, अन्यथा कहीं कहीं कहा हुआ भी वह वाक्य न कहे हुए के समान हो जाता है । परन्तु यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि यदि उसके प्रयोग से सत्वादि किसी भी धर्म का सर्वथा विच्छेद होता हो तो उसके साथ-साथ स्यात्कार का भी प्रयोग अवश्य करना चाहिए, क्योंकि यह अनेकान्त का द्योतक है। ४०६. सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञः, सर्वत्रार्थात्प्रतीयते । यथैवकारेऽयोगादि, व्यवच्छेदप्रयोजनः । श्लो० वा० । २.१.६ ॥ ५६ (निःसन्देह सर्वत्र व सर्वदा इस प्रकार बोलना व्यवहार विरुद्ध है, इसीलिए आचार्य कहते हैं कि) जिस प्रकार एवकार का प्रयोग न होने पर भी विज्ञजन केवल प्रकरण पर से अयोग व्यवच्छेद, अन्ययोग व्यवच्छेद और अत्यन्तायोग व्यवच्छेद के आशय को ग्रहण कर लेते हैं, उसी प्रकार स्यात्कार का प्रयोग न होने पर भी स्याद्वादीजन प्रकरणवशात् उसके आशय को ग्रहण कर लेते हैं। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112