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स्वाद्वाद अधि०१७
सर्वधर्म-समभाव १. सर्वधर्म समभाव ३९९. जं पुण समत्तपज्जाय, वत्थुगमग त्तिसमुदिया तेणं। सम्मत्तं चक्खुमओ, सब्बगयावयवगहणे व्व ॥
वि० आ० मा० । २२७० यत् पुनः समस्तपर्याय-वस्तुगमका इति समुदितास्तेन ।
सम्यक्त्वं चक्षुष्मन्तः, सर्वगजावयवग्रहण इव ।। जिस प्रकार नेत्रवान् पुरुष सांगोपांग हाथी को ही हाथी के रूप में ग्रहण करता है, उसके किसी एक अंग को नहीं; उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि व्यक्ति समस्त पर्यायों या विशेषों से विशिष्ट समुदित वस्तु को ही तत्त्वरूपेण ग्रहण करता है, उसके किसी एक धर्म या विशेष को नहीं। ४००. उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः। न च तासु भवान् प्रदृश्यते,प्रविभक्तासु सरित्स्विोदधिः।।
वि० आ० मा० । २२६५ की टीका में उद्धृत हे नाथ ! जिस प्रकार सभी नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार सभी दृष्टियाँ अर्थात् धर्म, आपकी स्याद्वादी दृष्टि में आकर मिल जाते हैं। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न नदियों में सागर नहीं रहता, उसी प्रकार विभिन्न एकान्तवादी पक्षों में आप अर्थात् स्याद्वाद नहीं रहता। ४०१. हेउविसओवणीअं, जय वयणिज्जं वरो नियत्तेइ। जइ तं तहा पुरिल्लो, दाइंतो केण जिव्वंतो॥
सन्मति तर्क। ३.५८ हेतुविषयोपनीतं, यथा वचनीयं परो निवर्तयति ।
यदि तत्तथाऽपरोऽदर्शयिष्यत, केन अजेष्यत । वादी यदि साध्य को ही हेतु के रूप में प्रयोग करता है तो प्रतिवादी उसे असिद्ध साधन दोष देकर हरा देता है। परन्तु यदि वादी ।
स्याद्वाद अधि० १७
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स्याद्वाद-न्याय उस साध्य को पहले से स्वीकार कर चुका हो, तब वह किससे पराजित होगा। २. स्याद्वाद-न्याय ४०२. वाक्येष्वनेकान्तद्योतिगम्यं-प्रतिविशेषणम् । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्-तत्केवलिनामपि ।
आप्त मी० । १०३ 'स्थात' यह निपात या अव्यय अनेकान्त का द्योतक है और पदार्थ अनेकान्त का द्योत्य है। इस प्रकार अर्थयोगी होने के कारण यह शब्द केलियों के भी वाक्यों में अनेकान्त के विशेषण रूप में प्रयुक्त होता है। ४०३. सिद्धयंत्रो यथा लोके, एकोऽनेकार्थदायकः । स्याच्छब्दोऽपि तथा ज्ञेय, एकोऽनेकार्थसाधकः ॥
न.च०।२५१ पर उद्धृत जिस प्रकार लोक में सिद्ध किया गया मंत्र एक व अनेक इच्छित पदार्थों को देने वाला होता है, उसी प्रकार 'स्यात्' यह शब्द एक तथा अनेक अभिप्रेत अर्थों का साधक है। ४०४. अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं,
वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या। आकांक्षिणः स्यदिति वै निपातो, गुणाऽनपेक्षे नियमेऽपवादः ॥
स्वयंभू स्तोत्र । ४४ जिस प्रकार 'वृक्षा.' यह पद अनेक वृक्षों का वाचक होते हुए भी स्वभाव से ही पृथक्-पृथक् एक वृक्ष का भी द्योतन करता है, इसी
१. एकान्तबादी अपने पक्ष के अतिरिक्त दूसरे के पक्ष को किसी भी अपेक्षा खीकार नहीं करता है, इसीसे प्रतिवादी उसके पक्ष को इक्षित करने में सफल हो जाता है। परन्तु किसी न किसी नव से सभी पक्षों को खीकार करने वाला स्याद्वादी से पराजित हो सकता है ?
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