Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 103
________________ आम्नाय अधि० १८ १८२ श्वेताम्बर-सूत्र ४२०. एवमेव महापउम्मो वि, अरहा समणाणं निग्गंथाणं । पंचमहव्वयाई जाव, अचेलगं धम्मं पण्णविहिउ ॥ स्थानांग । ९.५० (६९३ ) एवमेव महापद्मोऽपि, अर्हन् श्रमणाणां निर्ग्रन्थानाम् । पंचमहाव्रतानि यावदचेलकं धर्मं प्रज्ञापयिष्यति ॥ इसी प्रकार आगामी तीर्थंकर भगवान् महापद्म भी पंच महाव्रतों से युक्त अचेलक धर्म का ही प्ररूपण करेंगे। ४२१. पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणविहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगप्पओयणं ॥ उत्तरा० । २३.३२ प्रतीत्यार्थं च लोकस्य नानाविध विकल्पनम् । यात्रार्थं ग्रहणार्थं च, लोके लिंगप्रयोजनम् ॥ इतना होने पर भी लोक-प्रतीति के अर्थ, हेमन्त व वर्षा आदि ऋतुओं में सुविधापूर्वक संयम का निर्वाह करने के लिए, तथा सम्यक्त्व व ज्ञानादि को ग्रहण व धारण करने के लिए लोक में बाह्य लिंग का भी अपना स्थान अवश्य है । ४२२. इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे णवुंसगा । तहेव य ॥ Jain Education International उत्तरा० । ३६.४९ स्त्रीपुरुषसिद्धाश्च तथैव च नपुंसकाः । स्वलिंगाः अन्यलगाश्च, गृहिलिंगास्तथैव च ॥ (सभी लिंगों से मोक्ष प्राप्त हो सकता है, क्योंकि सिद्ध कई प्रकार के कहे गये हैं) यथा- स्त्रीलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध, पुरुषलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध, नपुंसक लिंग से मुक्त होनेवाले सिद्ध, जिन-लिंग से मुक्त होनेवाले सिद्ध, आजीवक आदि अन्य लिंगों से मुक्त होने वाले सिद्ध, और गृहस्थलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध । आम्नाय अधि० १८ १८३ श्वेताम्बर-सूत्र ४२३. निग्गंथ सक्क तावस, गेरुय आजीव पंचहा समणा ॥ नन्दि सूत्र । ४६ की मलयगिरि टीका में उद्धृत निर्ग्रन्थ शाक्य तापस, गैरुक आजीव पंचधा श्रमणा । श्रमण लिंग पाँच प्रकार का होता है--निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीवक । ४२४. जिणकप्पा विदुविहा, पाणिपाया पडिग्गहधरा य । पाउरजमया उरणा, एक्केक्का ते भवे दुविहा ॥ पवयणसारोद्वार । ६०.२ जिनकल्पाऽपि द्विविधाः पाणिपात्राः परिग्रहधराश्च । सप्रावरणा अप्रावरणा, एकैकास्ते भवेयुः द्विविधाः ॥ जिनकल्पी साधु भी दो प्रकार के होते हैं और उनमें से भी प्रत्येक दो दो प्रकार के हैं । अर्थात् चार प्रकार के होते हैं-सवस्त्र परन्तु पाणिपात्राहारी, अवस्त्र पाणिपात्राहारी, सवस्त्र पात्रधारी और अवस्त्र पात्रधारी । ४२५. य एतान् वर्जयेद्दोषान्, धर्मोपकरणादृते । तस्य त्वग्रहणं युक्तं यः स्याज्जिन इव प्रभुः ॥ उत्तरा० । ३.१७८ की शान्त्याचार्य कृत टीका में उद्धृत जो साधु आचार विषयक दोषों को जिनेन्द्र भगवान् की भाँति बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए इनका न ग्रहण करना ही युक्त है ( परन्तु जो ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं वे अपनी सामर्थ्य व शक्ति के अनुसार हीनाधिक वस्त्र पात्र आदि उपकरण ग्रहण करते हैं। ) ४२६. जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं तंपि संजमलज्जट्ठा, धारंति For Private & Personal Use Only पायपुंछणं । परिहरति य ॥ दशवं० । ६.२० www.jainelibrary.org

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