Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 79
________________ १३५ तत्त्वाधिकार १३ १३४ तत्त्व-निर्देश १. तत्त्व-निर्देश ३०९. तच्चं तह परमठें, दव्वसहावं तहेव परमपरं। धेयं सुद्धं परमं, एयट्ठा हुंति अभिहाणा ॥ न०च०।४ तत्त्वं तथा परर्मार्थः, द्रव्यस्वभावस्तथैव परमपरम् । ध्येयः शुद्ध परम, एकार्थों भवन्त्यभिधानानि ॥ तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य-स्वभाव, पर, अपर, ध्येय, शुद्ध, परम ये सब शब्द एकार्थवाची हैं। ३१०. जीवाजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो, संते ए तहिया नव ।। उत्तरा०।२८.१४ तु०-५०का०।१०८ जीवाजीवाश्च बन्धश्च, पुण्यं पापाऽऽलवस्तथा। संवरो निर्जरा मोक्षः, सन्त्येते तथ्या नव॥ तत्त्व नौ है-जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव संवर, निर्जरा व मोक्ष । (आगे क्रमश: इनका कथन किया गया है।) ३११. जीवाजीवौ हि धर्मिणौ, तद्धर्मास्त्वास्रवादय इति । धर्मिधर्मात्मकं तत्त्वं, सप्तविधमुक्तम् ॥ श्लोक वार्तिक । २.१.४ । श्लो० ४८, तु० = सन्मति । १.४६ इन उपर्युक्त नौ तत्त्वों में जीव व अजीव ये प्रथम दो तत्त्व तो धर्मी हैं, और आस्रव आदि शेष उन दोनों के ही धर्म हैं। इस प्रकार ये सात' या नौ तत्त्व वास्तव में दो ही है--धर्मी व धर्म अथवा जीव तथा अजीव । ३१२. अतः शुद्धनयायत्तं, प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् । नवतत्त्वगतत्वेऽपि, यदेकत्वं न मुञ्चति ॥ स० सा०।क०७ तु० = अध्या० सा० । १८.. १. पुष्य पाप नामक दो तत्त्व वास्तव में आसव तत्व के ही विशेष रूप है, इसलिए इनको वारूव में गर्मित कर देने पर तत्त्वनी की बजाय सात भी कहे जाते हैं। तत्त्वाधिकार १३ जीवाजीव तत्त्व परन्तु निश्चय या शुद्ध दृष्टि से देखने पर तो (दो तत्त्वों को भी कहीं अवकाश नहीं) एकमात्र आत्म-ज्योति ही चकचकाती है, जो इन नव तत्वों में धर्मीरूपेण अनुगत होते हुए भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ती है। २. जीव-अजीव तत्व ३१३. आगासकालपुग्गल-धम्माधम्मेसु णस्थि जीवगुणा। तेसि अचेदणत्थं भणिदं जीवस्स चेदणदा॥ पं०का०।१२४ तु० = सावय पण्णति । ७८ आकाशकालपुद्गल-धर्माधर्मेषु न सन्ति जीवगुणाः । तेषामचेतनत्वं, भणितं जीवस्य चेतनता ॥ (पूर्वोक्त छह द्रव्यों में से) आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म ये पाँच द्रव्य जीव-प्रधान चेतन गुण से व्यतिरिक्त होने के कारण अजीव हैं, और जीव द्रव्य चेतन है। ३१४. उत्तमगुणाण धामं, सव्वदब्वाण उत्तमं दव्वं । तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेहि णिच्छयदो ।। का० अ०।२०४ उत्तमगुणानां धाम, सर्वद्रव्याणां उत्तमं द्रव्यम् । तत्त्वानां परं तत्त्वं, जीवं जानीयात् निश्चयतः ॥ ज्ञान दर्शन आनन्द आदि उत्तमोत्तम गुणों का धाम होने से 'जीव' छहों द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और नौ तत्त्वों में सर्वोत्तम या सर्वप्रधान है। ३१५. जीवादि बहित्तच्चं, हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा । कम्मोपाधिसमुब्भव-गुगपज्जएहिं वदिरित्तो ॥ नि० सा० । ३८ जीवादि बहिस्त्वं, हेयमुपादेयमात्मनो ह्यात्मा। कर्मोपाघिसमुद्भव - गुणपर्याययं तिरिक्तः ॥ an Education Intematonal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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