Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 87
________________ सृष्टि-व्यवस्था अधि०१४ कर्म-कारणवाद नहीं हो पाते, परन्तु सजातीय या विजातीय स्निग्ध व रूक्ष दो निकटवर्ती परमाणुओं में जब यह अन्तर दो से अधिक हो जाता है तो पाषाण की भाँति वे एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होकर परस्पर में संश्लेष को प्राप्त हो जाते हैं। चुम्बक 1 इस प्रकार द्वगुक को आदि लेकर त्र्यणुक चतुरणुक संख्याताणुक असंख्याताणुक व अनन्ताणुक स्कन्ध इस आकाश में स्वयं होते रहते हैं। इनमें कुछ सूक्ष्म होते हैं और कुछ स्थूल । ये दोनों ही पृथिवी, अप्, तेज व वायु इन चार प्रसिद्ध महाभूतों के रूप में विभक्त हो जाते हैं। तथा त्रिकोण, चौकोण, गोल आदि अनेक आकारों को धारण कर लेते हैं । ३. कर्म-कारणवाद ३५२. जीवहँ कम्मु अणाइ जिय-जणिय उ कम्मु ण तेण । कम्मे जीउ विजणि णवि, दोहि वि आइ ण जेण ॥ १५० जीवानां कर्म अनादीनि जीव जनितं कर्म न तेन । कर्मणा जोवोऽपि जनितो नापि, द्वयोरपि आदिः न येन ॥ हे आत्मन् ! जीवों के कर्म अनादि काल से हैं। न तो जीव ने कर्म उत्पन्न किये हैं और न ही कर्मों ने जीव को उत्पन्न किया है। क्योंकि जीव व कर्म दोनों की ही कोई आदि नहीं है । स० [सा० । ८० प० प्र० । १.५९ ३५३. जीवपरिणामहेदु, कम्मत्तं पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो विपरिणमइ || Jain Education International तु० = अध्या० सा० । १८.११३-११५ जीव परिणाम हेतु, कर्मत्वं पुद्गलाः परिणमन्ति । पुद्गलकर्मनिमित्तं तथैव जीवोपि परिणमति ॥ जीव के राग-द्वेषादि आस्रवभूत परिणामों के निमित्त से पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमन करते हैं, और इसी प्रकार जीव भी पुद्गल या जड़ कर्मों के निमित्त से राग-द्वेषादि रूप परिणमन करता है। ( ऐसा ही कोई स्वभाव है, जिसमें तर्क नहीं चलता है | ) For Private & Personal Use Only सृष्टि-व्यवस्था अधि०१४ १५१ कर्म-कारणवाद ३५४. चिच्चादुपयं च च उप्पयं च, खेत्तं सिंहं धणधन्नं च सव्वं । कम्पीय अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा ।। उत्तरा० । १३.२४ त्यक्त्वा द्विपदं च चतुष्पदं च क्षेत्रं गृहं धन-धान्यं च सर्वम् । कर्मात्मद्वितीयः अवशः प्रयाति परं भवं सुन्दरं पावकं वा ॥ सुन्दर या असुन्दर जन्म धारण करते समय, अपने पूर्व-संचित कर्मों को साथ लेकर, प्राणी अकेला ही प्रयाण करता है । अपने मुख के लिए बड़े परिश्रम से पाले गये दास दासी तथा गाय घोड़ा आदि सब यहीं छूट जाते हैं। ३५५. ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया, पुणो वि जीवस्स । संजायते देहा, देहंत रसं कमं पप्पा || प्र० सा० । १७० ते ते कर्मत्वगताः पुद्गलकायाः, पुनरपि जीवस्य । संजायन्ते देहाः, देहान्तरसंक्रम प्राप्य ॥ वे कर्म रूप परिणत पुद्गल स्वन्ध भवान्तर की प्राप्ति होने पर उस जीव के नये शरीर का आयोजन कर देते हैं। ३५६. जो खलु संसारत्थो जीवो, तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ ३५७. गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायंते । हिंदु विसयग्गहणं, ततो रागो व दोसो वा ॥ ३५८. जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि | इदि जिणव रेहिं भणिदो,अणादिणिघणो सणिधणो वा ॥ पं० का० । १२८-१३० यः खलु संसारस्थो जीवस्ततस्तु भवति परिणामः । परिणामात्कर्म कर्मणो भवति गतिषु गतिः ॥ गतिमधिगतस्य बेहो, देहादिन्द्रियाणि जायन्ते । तैस्तु विषयग्रहणं, ततो रागो वा द्वेषो वा ॥ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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