Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 94
________________ १६४ नय अधिकार १६ पक्षपात-निरसन ३८४. अवरोप्परसावेक्खं, णयविसयं अह पमाणविसयं वा । तं सावेक्खं तत्तं, णिरवेक्खं ताण विवरीयं ॥ न०1०। २५० अपरापरसोपेक्षो, नयविषयोऽथ प्रमाणविषयो वा। तत्सापेक्षं तत्त्वं, निरपेक्षं • तयोविपरीतम् ॥ प्रमाण व नय के विषय एक-दूसरे की अपेक्षा से वर्तते हैं। प्रमाण का विषय अर्थात् अनेकान्तात्मक जात्यन्तरभूत वस्तु तो नय के विषय की अर्थात् उसके किसी एक धर्म की अपेक्षा करती है, और नय का विषयभूत एक धर्म तत्सहवर्ती दूसरे नय के विषयभूत अन्य धर्म की अपेक्षा करता है। यही तत्त्व की या नय की सापेक्षता है। इससे विपरीत नय निरपेक्ष कहलाती है। ३८५. हिरवेक्खे एयन्ते, संकरआदीहि ईसिया भावा। णो णिजकज्जे अरिहा, विवरीए ते वि खलु अरिहा ॥ न०च०। ६७ निरपेक्षे एकान्ते, संकरादिभिरीषिता भावाः। नो निजकार्येऽर्हाः, विपरीते तेऽपि खल्वर्हाः ।। नय को निरपेक्ष एकान्तस्वरूप मान लेने पर, अभिप्रेत भी भाव संकर आदि दोषों के द्वारा अपना कार्य करने को समर्थ नहीं हो सकते हैं, और उसे सापेक्ष मान लेने पर वे ही समर्थ हो जाते हैं। ३८६. सापेक्षा नयाः सिद्धा, दुर्नयाऽपि लोकतः । स्याद्वादिनां व्यहारात, कुक्कुटग्रामवासितम् ।। सि० वि०। १०.२७ तु०-दे० गा०३८३ इसीलिए लोक में प्रयुक्त पक्षपातपूर्ण प्रायः सभी नय या अभिप्राय दुर्नय हैं। वे ही स्याद्वाद की शरण को प्राप्त होने पर सुनय बन जाती है, जिस प्रकार ग्राम या गृहवासी परस्पर मैत्रीपूर्वक रहने के कारण प्रशंसा को प्राप्त होते हैं। नय अधिकार १६ नयवाद को सार्वभौ० ३८७. कालो सहाव णियई, पुवकयं पुरिस कारणेगंता । मिच्छत्तं ते चेवा, समासओ होति सम्मत्तं ॥ सन्मति तर्क। ३.५३ तु० = गोक०। ८७७-८९५ कालो स्वभावो नियतिः, पूर्वकृतं पुरुषः कारणकान्ताः । मिथ्यात्वं ते चैव, समासतो भवन्ति सम्यक्त्वम् ।। काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत अर्थात् कर्म देव या अदृष्ट, और पुरुषार्थ ये पांचों ही कारण हर कार्य के प्रति लागू होते हैं। अन्य कारणों का निषेध करके पृथक् पृथक एक एक का पक्ष पकड़ने पर ये पाँचों ही मिथ्या है और सापेक्षरूप से परस्पर मिल जाने पर ये पाँचों ही सम्यक् है। ३. नयवाद को सार्वभौमिकता ३८८. बोद्धानामृजुसूत्रतो मतमभूद्वेदान्तिनां संग्रहात, सांख्यानां तत् एव नैगमनयाद् , योगश्च वैशेषिकः । शब्दब्रह्मविदोऽपि शब्दनयतः, सर्वैर्नयैर्गुम्फिता, जैनी दृष्टिरितीह सारतरता, प्रत्यक्षमुद्वीक्ष्वते । अध्या० सा०। १९.६ तु० = रा. वा०। १.६.१४४ (जितने भी दर्शन है या होंगे, ये सभी अपने अपने किसी विशेष दृष्टिकोण से ही तत्व का निरूपण करते हैं। इसलिए सभी किसी न किसी नय का अनुसरण करते हैं।) यथा-अनित्यत्ववादी बौद्ध-दर्शन 'ऋजुसूत्र' नय का अनुसरण करता है, अद्वेत व अभेदवादी वेदान्त व सांस्य-दर्शन 'संग्रह' नय का, भेदवादी योग व वैशेषिक-दर्शन 'नगम' नय का, और शब्दाद्वैतवादी 'मीमांसक' लोग शब्द सममिरूढ़ व एवंभूत नामक तीनों 'शब्द नयों' का अनुसरण करते हैं। परन्तु सर्व नयों से गुम्फित स्याद्वादमयी जैन दृष्टि की सारतरता प्रत्यक्ष ही सर्वोपरि अनुभव में आती है। १. गोम्भटसार में इन पाँच के अतिरिक्त भात्मवाद, ईश्वरवाद व संयोगवाद ये तीन For Private & Personal use only. और स्वीकार किये हैं। Jain Education International www.jainelibrary.org

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