Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 92
________________ अने० अधि०१५ सापेक्षतावाद ६. सापेक्षतावाद ३७६. यथैकशः कारकमर्थसिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका, नयास्तवेष्टा गुणमुख्य कल्पिताः॥ स्वयंभू स्तोत्र। ६२ तु०-दे० गा० ३७७ जैसे व्याकरण में एक-एक कारक शेष कारकों को सहायक बनाकर ही अर्थ की सिद्धि में समर्थ होता हैं, वैसे ही वस्तु के सामान्यांश और विशेषांश को ग्रहण करने वाले जो प्रधान नय या दृष्टियाँ हैं, वे मुख्य और गौण की कल्पना से ही इष्ट हैं। ३७७. यत्रानर्पितमादधाति गुणतां, मुख्यं तु वस्त्वर्पितं । तात्पर्यावलम्बनेन तु भवेद्, बोधः स्फुट लौकिकः ।। अध्या० सा०। १९.११ तु० = का० अ०। २६४ (यद्यपि वस्तु का कोई भी अंश मुख्य या गौण नहीं होता, परन्तु प्रतिपादन करते समय वक्ता प्रयोजनवश वस्तु के कभी किसी एक अंश को मुख्य करके कहता है और कभी दूसरे को) जिस समय कोई एक अंश अपेक्षित हो जाने से मुख्य होता है, उस समय दूसरा अंश अनपेक्षित होकर गौण हो जाता है, परंतु निषिद्ध नहीं होता है । लोक में भी वक्ता के अभिप्राय को देख कर ही उसकी बात का अर्थ जाना जाता है। ३७८. भिन्नापेक्षा यथैकत्र, पितृपुत्रादिकल्पना । नित्यानित्याद्यनेकान्त-स्तथैव न विरोत्स्यते ॥ अध्या० उप० । १.३८ तु० = स० सि०। ५.३२ जिस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से देखने पर एक ही व्यक्ति में पितृत्व प पुत्रत्व आदि की कल्पना विरोध को प्राप्त नहीं होती है, उसी प्रकार अनेकान्तस्वरूप एक ही वस्तु में अपेक्षावश नित्यत्व व अनित्यत्व आदि की कल्पनाएँ विरोध को प्राप्त नहीं होती है। १. विशेष दे० गा० ३६५-३६७ :१६: एकान्त व नय अधिकार ( पक्षपात-निरसन ) अपेक्षावश वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य करने वाला वक्ता का अभिप्राय-विशेष 'नय' कहलाता है। एकांशग्राही होने के कारण यही 'एकान्त' शब्द का वाच्य है। परन्तु इतनी विशेषता है कि दूसरे धर्मों को उस समय गौण करके स्वाभिप्रेत को मुख्य करने वाला वह एकान्त सम्यक् है, और दूसरे धर्मों या पक्षों का सर्वथा लोप करके अपने ही पक्ष का हठ पकड़ने वाला एकान्त मिथ्या है। तात्त्विक गवेषणा के काल में यह नय-ज्ञान अत्यन्त उपकारी है, जबकि अनेकान्तमयी पूर्वोक्त जात्यन्तरभाव का दर्शन करते समय व्यक्ति नयातीत हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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