Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 90
________________ अने० अधि०१५ १५७ वस्तु को जटिलता अने० अधि० १५ १५६ विरोध में अविरो ___द्रव्य, गुण व पर्याय इन तीनों में भले ही संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन, संस्थान आदि की अपेक्षा भेद रहे, परन्तु प्रदेश भेद न होने के कारण ये वस्तुतः अनन्य है। ३६४. एगदवियम्मि जे अत्थपज्जया, वयणपज्जया वा वि। तीयाणागयभूया, तावइयं तं हवइ दव्वं ॥ सन्मति तर्क । १.३१ तु० - ध०। १गा०, १९९ । ३८६ पर उद्धृत एकद्रव्ये येऽर्थपर्यायाः, व्यंजनपर्यायाः वापि । अतीतानागतभूताः, तावत्कं तत् भवति द्रव्यम् ॥ एक द्रव्य में जो अतीत वर्तमान व भावी ऐसी त्रिकालवर्ती गुण पर्याय तथा द्रव्य पर्याय होती हैं, उतना मात्र ही वह द्रव्य होता है। ३६५. दव्वं पज्जवविउयं, दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि । उप्पायलिदिभंगा, हंदि दवियलक्खणं इयं । सन्मति तकं । १.१२ तु० - पं० का०। ११-१२ द्रव्यं पर्ययवियुक्तं, द्रव्यवियुक्ताश्च पर्ययाः न सन्ति । उत्पादस्थितिभंगाः, भवति द्रव्यलक्षणमेतत् ॥ उत्पन्नध्वंसी पर्यायों से विहीन द्रव्य तथा त्रिकाल ध्रुवद्रव्य से विहीन पर्याय कभी नहीं होती। इसलिए उत्पाद व्यय व ध्रौव्य इन तीनों का समुदित रूप ही द्रव्य या सत् का लक्षण है। २. विरोध में अविरोध ३६६. न सामान्यात्मनोदेति, न व्येति व्यक्तमन्वयात् । ___व्यत्युदेति विशेषात्ते, सहक्त्रोदयादि सत् ।। आ० मी०। ५७ तु० - दे० गा० ३९८ [यहाँ यह शंका हो सकती है कि एक ही द्रव्य में एक साथ उत्पाद, व्यय व प्रोव्य ये तीन विरोधी बातें कैसे सम्भव है? इसका उत्तर देते हैं कि अन्वय रूप से सर्वदा अवस्थित रहने वाला सामान्य द्रव्य तो न उत्पन्न होता है न नष्ट, परन्तु पर्यायरूप पूर्वोत्तरवर्ती विशेषों की अपेक्षा वही नष्ट भी होता है और उत्पन्न भी। इस हेतु से सत् के त्रिलक्षणात्मक होने में कोई विरोध नहीं है। ३६७. जह कंचणस्स कंचण-भावेण अवठियस्स कडगाई। उप्पज्जति विणस्संति, चेव भावा अणेगविहा ।। ३६८. एवं च जीवदव्वस्स, दवपज्जवविसेसभइयस्स । निच्चत्तमणिच्चत्तं, च होइ णाओवल भंतं । सावय पण्णति। १८४, १८५ तु० = आप्त मी०। ५९ यथा कांचनस्य कांचनभावेन अवस्थितस्य कटकादयः । उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चैव भावाः अनेकविधाः॥ एवं च जीवद्रव्यस्य द्रव्यपर्यायविशेषभक्तस्य । नित्यत्वमनित्यत्वं च भवति न्यायोपलभ्यमानम् ॥ जिस प्रकार स्वर्ण स्वर्णरूपेण अवस्थित रहते हुए भी उसमें कड़ा कुण्डल आदि अनेकविध भाव उत्पन्न व नष्ट होते रहते हैं, उसी प्रकार द्रव्य व पर्यायों को प्राप्त जीव द्रव्य का नित्यत्व व अनित्यत्व भी न्याय-सिद्ध है। ३. वस्तु की जटिलता ३६९. पुरिसम्मि पुरिससद्दो, जम्माई मरणकालपज्जतो। तस्स उ बालाइया, पज्जवजोया बहुवियप्पा ।। सन्मति तर्क । १.३२ पुरुषे पुरुषशब्दो, जन्मादि-मरण कालपर्यन्तः । तस्य तु बालादिकाः, पर्यययोग्या बहुविकल्पाः ।। जन्म से लेकर मरणकाल पर्यन्त पुरुष में 'पुरुष' ऐसा व्यपदेश होता है । वाल युवा आदि उसीकी अनेक विध पर्यायें या विशेष हैं। ३७०. तम्हा बत्थूणं चिय, जो सरिसो पज्जयो स सामन्नं । जो विसरिसो विसेसो, स मओऽणत्यंतरं तत्तो॥ वि० आ० मा०। २२०२ तु० = प० म०। ४.१-२ Jain Education International For Private & Personal use only www.janelibrary.org

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