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अने० अधि० १५
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जिस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों की अपेक्षा किसी एक ही पुरुष में पितृत्व व पुत्रत्वादि धर्म विरोध को प्राप्त नहीं होते हैं, उसी प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से देखने पर एक ही वस्तु में ये सभी विरोधी धर्म विरोध को प्राप्त नहीं होते हैं ।
परिचय
वास्तव में देखा जाय तो ये सब विश्लेषणकृत विकल्प मात्र हैं। वस्तु तो न नित्य है न अनित्य, न तत् न अतत्, न एक और न अनेक। वह है इन सबका एक रसात्मक अखण्ड पिण्ड, एक जात्यन्तर भाव, बौद्धिक तर्कों, मानसिक विकल्पों व वाचिक भेदों से अतीत और वस्तु का यह स्वरूप ही है अनेकान्त शब्द का वाच्य, जिसे इस नाम से न सही, पर किसी न किसी रूप में सभी स्वीकार करते हैं ।
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अने० अधि० १५
१. द्रव्य स्वरूप
३६१ तं परियाहिं दब्बु तुहुं, जं गुणपज्जयजुत्तु । सहभुव जाणहि ताहँ गुण, कमभुय पज्जउ वृत्तु ॥
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द्रव स्वरूप
प० प्र० । १.५७
तत् परिजानीहि द्रव्यं त्वं यत् गुणपर्याययुक्तम् । सहभुवः जानीहि तेषां गुणाः, क्रमभुवः पर्यायाः उक्ताः ॥ और पर्यायों से युक्त होता है, उसे तू द्रव्य जान । जो द्रव्य
के साथ सदा काल रहें वे गुण होते हैं। (जैसे जीव का ज्ञान गुण ) । तथा द्रव्य व गुण के वे भाव पर्याय कहलाते हैं जो उनमें एक के पश्चात् एक क्रम से उत्पन्न हों (जैसे ज्ञान के विविध विकल्प ) । ( तात्पर्य यह कि द्रव्य में गुण तो नित्य होते हैं और पर्याय अनित्य ।) ३६२. गुणाणामासओ दव्वं, एगदव्वासिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ॥
उत्तरा० । २८.६
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तु० त० सू० । ५.४१, ४२
गुणानामाश्रयो द्रव्यं, एकद्रव्याश्रिताः गुणाः । लक्षणं पर्यायाणां तु उभयोराश्रिता भवन्ति ॥ द्रव्य गुणों का आश्रय होता है। प्रत्येक द्रव्य के आश्रित अनेक गुण रहते हैं, जैसे कि एक आम्रफल में रूप रसादि अनेक गुण पाये जाते हैं । (द्रव्य से पृथक् गुण पाये नहीं जाते हैं। ) पर्यायों का लक्षण उभयाश्रित है।
३६३. ववदेसा संठाणा संखा, विसया य होंति ते बहुगा । ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जते ॥ पं० का० । ४६
व्यपदेशाः संस्थानानि संख्या, विषयाश्च भवन्ति ते बहुकाः । ते तेषामनन्यत्वे, अन्यत्वे चापि विद्यते ॥ १. अर्थात् पर्याय दो प्रकार की है- द्रव्य पर्याय व गुण-पर्याय (विशेष देखो अंत में शब्दकोश)
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