Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 88
________________ सृष्टि-व्यवस्था अधि०१४ १५२ कर्म-कारणवाद जायते जीवस्येवं, भावः संसारचक्रवाले। इति जिनवरैर्भणितोऽनादिनिधनः सनिधनो वा॥ संसार स्थित जीव को पूर्व-संस्कारवश स्वयं राग द्वेषादि परिणाम होते हैं। परिणामों के निमित्त से कर्म और कर्मों के निमित्त से चारों गतियों में गमन होना स्वाभाविक है। गति प्राप्त हो जाने पर देह, तथा देह के होने पर इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण, तथा उससे पुनः राग-द्वेष का होना स्वाभाविक है। संसाररूपी इस चक्रवाल में इस प्रकार जीव के भाव उत्पन्न होते रहते हैं। कड़ी-बद्ध अटूट शृंखला की अपेक्षा यह संसार-चक्र अनादि निधन है, और किसी एक भाव या गति आदि की अपेक्षा देखने पर वह सादि सनिधन है। ३५९. विधि सृष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेया कर्मवेधसः ।। म० पु०। ४.३७ विधि, सृष्टा, विधाता, देव, पुराकृत, कर्म और ईश्वर, ये सब उसी कर्म के पर्यायवाची नाम हैं। ३६०. तनुकरणभुवनादौ निमित्तकारणत्वादीश्वरस्य । न चैतदसिद्धम् ।। आप्त-परीक्षा। टीका। १।७५१ अब तक कहे गये सर्व प्रकरण पर से यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि स्वभाव व कर्म इन दो शक्तियों के अतिरिक्त शरीर, न्द्रिय व जगत् के कारण रूप में, ईश्वर नामक किसी अन्य सत्ता की कल्पना करना व्यर्थ है। अनेकान्त-अधिकार (द्वैताद्वैत ) छह द्रव्यों का व उनके पृथक्-पृथक् गुणों का परिचय अधिकार १२ में दिया जा चुका है। जैन-दर्शन इन दोनों को न कूटस्थ नित्य मानता है, न सर्वथा अनित्य । परिणमन-स्वभावी होने के कारण ये नित्य बदलते जा रहे है। जीवद्रव्य पशु से मनुष्य बन जाता है और मनुष्य बालक से वृद्ध । ज्ञान-गुण अविशद से विशद हो जाता है और रस-गण खट्टे से मीठा। द्रव्य व गण इन दोनों के परिवर्तनशील ये उत्पन्नध्वंसी कार्य 'पर्याय' शब्द के वाच्य है। सत्ताभूत वस्तु इन तीनों का एक रसात्मक अखण्ड पिण्ड है। इन्द्रियों द्वारा बालक वृद्धादि द्रव्य-पर्यायें और खट्टा मीठा आदि गण-पर्यायें ही देखने व जानने में आती हैं, उनमें अनुगत वह द्रव्य व गुण नहीं, जिसमें व जिस पर कि ये तैर रही है। अन्वय रूप से अवस्थित वे दोनों त्रिकाल ध्रुव है। पर्यायें उत्पन्नध्वंसी होने के कारण अनित्य है और द्रव्य व गुण उनमें अनुगत होने के कारण नित्य । पर्याय एक दुसरे से भिन्न-रूपवर्ती होने के कारण एक-दूसरे के प्रति अतत् स्वरूप है और इसलिए अनेक भी, जबकि द्रव्य व गुण इनमें अनुगतरूप से सदा वही रहने के कारण तत् स्वरूप तथा एक-एक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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