Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 76
________________ द्रव्याधिकार १२ १२८ पुद्गल द्रव्य द्रव्याधिकार १२ १२९ धर्म तथा अधर्म द्रव्य शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप आदि सब पुद्गल देहधारी संसारी जीव भी, इन सबमें पुद्गल शब्द प्रवृत्त होता है। के कार्य है, और वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श ये चार उसके प्रधान लक्षण हैं। (मन, वाणी व ज्ञानावरणादि अष्ट कर्म भी पुद्गल माने गये हैं।) २९८. ओरालियो य देहो, देहो वे उव्विओ य तेजइओ। ४. आकाश द्रव्य आहारय कम्मइओ, पुग्गलदव्वप्पगा सव्वे ।। ३०१. चेयण रहियममुत्तं, अवगाहणलक्खणं च सव्वगयं । प्र०सा०।१७१ तु० स्थानांग। ५.३९५ औदारिकश्च देहो, देहो वैक्रियकश्च तेजसः । लोयालोयविभेयं, तं णहदव्वं जिणुद्दिजें। न०च० । ९८ तु०= उत्तरा०।२८.९ आहारकः कार्माणः, पुद्गलद्रव्यात्मिकाः सर्वे ॥ चेतनरहितममर्तमवगाहनलक्षणं च सर्वगतम् । मनुष्यादि के स्थूल शरीर 'औदारिक' कहलाते हैं और देवों व लोकालोकद्विभेदं, तन्नभोद्रव्यं जिनोद्दिष्टम् ॥ नारकियों के 'वैक्रियिक'। इन स्थूल शरीरों में स्थित इनमें कान्ति आकाश द्रव्य अचेतन है, अमूर्तीक है, सर्वगत अर्थात् विभु है। व स्फूर्ति उत्पन्न करने वाली तेजस शक्ति 'तैजस शरीर' है। योगी सर्व द्रव्यों को अवगाह या अवकाश देना इसका लक्षण है। वह दो जनों का ऋद्धि-सम्पन्न अदृष्ट गरीर 'आहारक' कहलाता है। और भागों में विभक्त है--लोकाकाश और अलोकाकाश। रागद्वेषादि तथा इनके कारण से संचित कर्मपुंज 'कार्मण शरीर' माना ३०२. घम्माघम्मौ कालो, पुग्गलजीवा य संति जावदिये। गया है। ये पाँचों शरीर पुद्गल द्रव्य के कार्य हैं। ___ आयासे सो लोगो, ततो परदो अलोगुत्तो। २९९. जीवस्स णत्थि रागो, णविदोसोणेव विज्जदे मोहो। द्र०सं० २० तु०उत्तरा०। ३६.२ जेण दु एंद सव्वे, पुग्गल दव्वस्स परिणामा। धर्माधमा कालः, पुद्गलजीवाः च सन्ति यावतिके। स०सा०। ५१५५५ तु० = अध्या० उप० २.२८-३० आकाशे स: लोकः, ततः परतः अलोकः उक्तः ॥ जीवस्य नास्ति रागो, नापि द्वेषो नैव विद्यते मोहः। (यद्यपि आकाश विभु है, परन्तु षद्रव्यमयी यह अखिल सृष्टि येन ऐत सर्वे, पुद्गलद्रव्यस्य परिणामाः॥ उसके मध्यवर्ती मात्र अति तुच्छ क्षेत्र में स्थित है) धर्म अधर्म काल परमार्थतः न तो राग जीव का परिणाम है और न द्वेष और मोह, पुद्गल व जीव ये पाँच द्रव्य उस आकाश के जितने भाग में अवस्थित क्योंकि ये सब पुद्गल-द्रव्य के परिणाम है। है, वह 'लोक' है और शेष अनन्त आकाश 'अलोक' कहलाता है। ३००. मूर्तिमत्सु पदार्थेषु, संसारिण्यपि पुद्गलः । ५. धर्म तथा अधर्म द्रव्य अकर्म - कर्मनोकर्म, जातिभेदेषु वर्गणा ।। [धर्म तथा अधर्म ये शब्द यद्यपि सर्वत्र पुण्य व पाप के अर्थ में प्रसिद्ध हैं, और गो०जी० । जी०प्र० टीका। ५९४ में उद्धृत जैन-दर्शन भी इनको इस अर्थ में स्वीकार करता है । परन्तु द्रव्य के प्रकरण में यहाँ ( अधिक कहाँ तक कहा जाय ) लोक में जितने भी मूतिमान पदार्थ इन शब्दों को इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं समझना चाहिए। हैं, वे अकर्म रूप हों या कर्म रूप, नोकर्म अर्थात् विविध प्रकार के शरीरों आकाशवत् अखण्ड व अमूर्तीक ये दो सत्ताधारी पदार्थ है, जो जीवों व पुद्गलों की गति एवं स्थिति में उदासीन रूप से सहकारी होते है। व स्कन्धों रूप हों या विभिन्न जाति की सूक्ष्म वर्गणा रूप, यहाँ तक कि १. सर्वार्थसिद्धि । ५.३, ५.१९ २. स० सा० । ४५ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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