Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 26
________________ २८ सम्य० अधि०४ अमूढ़ दृष्टित्व जो जीव वस्तु के मनोज्ञामनोज्ञ धर्मों में अथवा व्यक्ति के कुल, जाति व सम्प्रदाय आदि रूप विविध धर्मों में ग्लानि नहीं करता, उसे विचिकित्साविहीन सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। ५९. एक्कु करे में विण्णि करि, मं करि वण्ण विसेसु । इक्कइँ देवइँ जे वसइ, तिहुयणु एहु असेसु ॥ प० प्र० । २.१०७ तु आचारांग। १.२.३ सूत्र १-३ एकं कुरु मा द्वौ कार्षीः मा कार्षीः वर्णविशेषम्। एकेन देवेन येन वसति त्रिभुवनं एतत् अशेषम् ॥ हे आत्मन् ! तू जाति की अपेक्षा सब जीवों को एक जान । इसलिए राग और द्वेष मत कर। अभेद नय से त्रिलोकवर्ती सकल जीव-राशि शुद्धात्मस्वरूप होने के कारण समान हैं। ( उच्च जाति का गर्व मत कर'।) सम्य० अधि०४ उपगृहनत्व ९. उपगूहनत्व ( अनहंकारत्व ) ६१. णो च्छायएणो वि य लूसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज पगासणं च ___ण यावि पन्ने परिहास कुज्जा, ण यासियावाय वियागरेज्जा सू० कृ० । १४.१९ तुका० अ० । ४१९ नो छादयेनापि च लषयेद्, मानं न सेवेत प्रकाशनं च। न चापि प्राज्ञः परिहासं कुर्यात्, न चाशीर्वादं व्यागृणीयात् ॥ सम्यग्दृष्टि पुरुष न तो सूत्र के अर्थ को छिपाता है, और न स्व-पक्ष पोषणार्थ 'उसका अन्यथा कथन करता है। वह अन्य के गुणों को छिपाता नहीं और न ही अपने गुणों का गर्व करके अपनी महत्ता का बखान करता है। स्वयं को प्रज्ञावन्त जानकर वह अन्य का उपहास नहीं करता और न ही अपना गौरव जताने के लिए किसीको आशीर्वाद देता है। ६२. जो ण य कुम्वदि गव्वं, पुत्तकलत्ताइसव्वअत्थेसु । उवसमभावे भवदि, अप्पाणं मुणदि क्णिमेत्तं ।। का० अ० । ३१३ तु०=सू० कृ० । १.१३-१५ यः न च कुरुते गर्व, पुत्रकलत्रादिसर्वार्थेषु । उपशमभावे भावयति, आत्मानं जानाति तृणमात्रं ॥ जो सम्यग्दृष्टि पुत्र कलत्रादि किसी का भी गर्व नहीं करता और अपने को तृण के समान मानता है, उसे उपशम-भाव होता है। ६३. विरलो अज्जदि पुण्णं, सम्मदिट्ठी वएहिं संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो, णिदण गरहाहि संजुत्तो। का० अ०। ४८ तु० = उत्तरा० । २९.६-७ विरलः अर्जयति पुण्यं, सम्यग्दृष्टिः वतैः संयुक्तः । उपशमभावेनसहितः, निन्दनगम्यिां संयुक्तः ॥ १. सम्यग्दृष्टि को शान तप आदि का भी मद नहीं होता। देगा. २७०। ८. अमूढदृष्टित्व ( स्व-धर्म-निष्ठा) ६०. मायावुइममेयं तु, मुसाभासा णिरत्थिया । संजममाणो वि अहं, वसामि इरियामि य ।। उत्तरा०। १८.२६ तु०= का० अ०। ४१८ मायोदितमेतत् तु, मषाभाषा निथिका। सयच्छन्नप्यहम्, वसामि ईर्यायां च॥ ( अपने-अपने पक्ष का पोषण करने में रत अनेक मत-मतान्तर लोक में प्रचलित हैं) ये सब मायाचारी हैं और इनकी वाणी मिथ्या व निरर्थक है'। उनके कथन को सुनकर भी मैं भ्रम में नहीं पड़ता। संयम में स्थित रहता हूँ तथा यतनापूर्वक चलता हूँ। १.देगा०२७२। २. विशेष दे० गा०३८१-२८४ । ३. विशेष दे० गा०१५१-१५२ । Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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