Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 69
________________ धर्माधिकार ११ ११५ उत्तम त्याग धर्माधिकार ११ उत्तम शोच १२. उत्तम शौच (सन्तोष) २७५. किं माहणा! जोइ समारभन्ता, उदएण सोहि बहिया विमग्गहा ? जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, न तं सुइट्ठ कुसला वयंति ॥ उत्तरा०।१२.३८ तु० - पं० वि० । १.९५ कि ब्राह्मणा ज्योतिः समारभमाणाः, ___ उदकेन शुद्धि बाह्यां विमार्गयथ । यां मार्गयथ बाह्यं विशुद्धि, न तत् स्विष्टं कुशला वदन्ति ॥ हे ब्राह्मणो! तुम लोग यज्ञ में अग्नि का आरम्भ तथा जल द्वारा बाह्य शुद्धि की गवेषणा क्यों करते हो? कुशल पुरुप केवल इस बाह्य शुद्धि को अच्छा नहीं समझत। २७६. सम-संतोस-जलेण य, जो धोवदि तिण्णलोहमलपुंजं । भोयणगिद्धिविहीणो, तस्स सउच्चं हवे विमलं ॥ का० अ०।३९७ तु०= उत्तरा० । १२.४५-४६ समसन्तोषजलेन, यः धोवति तीव्रलोभमलपुजम् । भोजनगृद्धिविहीनः, तस्य शौचं भवेत् विमलम् ॥ जो मुनि समताभाव और सन्तोषरूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के पुंज को धोता है, तथा भोजन में गृद्ध नहीं होता, उसके निर्मल शौच धर्म होता है। २७७. जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्ज, कोडीए वि न निट्ठियं ।। उत्तरा०। ८.१७ तु० =ज्ञानार्णव । १७.२-३ यथा लाभः तथा लोभः, लोभाल्लोभः प्रवर्धते । द्विमाषकृतं कार्य, कोट्या अपि न निष्ठितम् ॥ ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है त्यों-त्यों लोभ भी बड़ता है। देखो! जिस कपिल ब्राह्मण को पहले केवल दो माशा स्वर्ण की इच्छा थी, राजा का आश्वासन पाकर वह लोभ बाद में करोड़ों माशा से भी पूरा न हो सका। २७८. न कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मुणा कम्म खति धीरा। मोहाविणो लोभभयावईया, ____ संतोसिणो ण पकरेंति पावं ।। सू० कृ० । १.१२.१५ तु०=पं० का० । ता० ३० टी०। १७३ न कर्मणा कर्म क्षपयन्ति बालाः, अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः। मेधाविनः लोभभयादतीताः, संतोषिणो नो प्रकुर्वन्ति पापम् ॥ अज्ञानी जन कितना भी प्रयत्न करें, वे कर्म को कर्म से नहीं खपा सकते। धीर पुरुष ही अकर्म से कर्म को खपाते हैं। कामना और भय से अतीत होकर यथालाभ सन्तुष्ट रहनेवाला योगी किसी भी प्रकार का पाप नहीं करता। * सत्य, संयम, तप व ब्रह्मचर्य धर्म के लिए दे० अधि० ८-९ १३. उत्तम त्याग २७९. सव्वे भावे जम्हा, पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं । तम्हा पच्चक्खाणं, णाणं णियमा मुणेदव्वं ॥ स० सा० । ३४ तु०-वि० आ० भा० । २६३४ ज्ञानं सर्वान्भावान्, प्रत्याख्याति परानिति ज्ञात्वा । तस्मात् प्रत्याख्यानं, ज्ञानं नियमात् मन्तव्यम् ॥ अपने से अतिरिक्त सभी पदार्थों को 'ये मुझसे पर हैं' ऐसा जानकर, ज्ञान ही प्रत्याख्यान करता है, इसलिए ज्ञान या आत्मा ही स्वयं स्वभाव से प्रत्याख्यान या त्याग स्वरूप है, ऐसा जानना चाहिए। २८०. विषयान् साधकः पूर्वमनिष्टत्वधिया त्यजेत् । न त्यजेन च गृह्णीयात्, सिद्धो विन्द्यात् स तत्त्वतः ॥ अव्या० उप०।२.९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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