Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 72
________________ :१२: द्रव्याधिकार (विश्व-दर्शन योग ) जैन दर्शन अनेक-द्रव्यवादी है। विजाति की अपेक्षा द्रव्य छह है-जीव, पुद्गल-परमाणु, धर्म, अधर्म, आकाश व कालाणु। सजातीय की अपेक्षा जीव व परमाणु संख्या में अनन्त अनन्त है, कालाणु असंख्यात है, और शेष तीन (धर्म, अधर्म और आकाश) एक एक हैं। अनन्त व विभु आकाश के मध्यवर्ती जितने भाग में ये सब अवस्थित है, उसे 'लोक' कहते हैं और उसके बाहर शेष अनन्त आकाश 'अलोक' कहलाता है। गामने के चित्र के अनुसार आकाश का लोकवर्ती यह क्षेत्र पुरुषाकार है, जिसके अधोभाग में नारकीयों का, मध्य भाग में मनुष्यों का व तिर्यचों का, ऊर्ध्व भाग में देवों का तथा सबसे ऊपर सिद्धों या मुक्त जीवों का आवास है। (दे० गा० ११०) Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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