Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 67
________________ धर्माधिकार ११ यज्ञ-सूत्र तावत् भुज्यतां लक्ष्मीः, दीयतां दानं वयाप्रधानेन । या जलतरंगचपला, द्वित्रिदिनानि तिष्ठति ॥ यह लक्ष्मी जल की तरंगों की भांति अति चंचल है। दो तीन दिन मात्र ठहरने वाली है। इसलिए जब तक यह आपके पास है, तब तक इसे आवश्यकतानुसार भोगो और साथ-साथ दयाभाव सहित दान में भी खर्च करो। २६५. जो मुणिभुत्तवसेसं, भुंजइ सो भुंजए जिणुवदिळें । संसारसारसोक्खं, कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ॥ र० सा०।२२ यो मुनिः भुक्तावशेषं भुजति सो भुंजते जिनोपदिष्टम् । संसारसारसौख्यं, क्रमशः निर्वाणवरसौख्यम् ॥ जो श्रावक साधु-जनों को खिलाने के पश्चात् शेष बचे अन्न को खाता है वही वास्तव में खाता है। वह संसार के सारभूत देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि के उत्तम सुखों को भोगकर क्रम से निर्वाण-सुख को प्राप्त कर लेता है। ८. यज्ञ-सूत्र २६६. तवो जोई जीवो जोइठाण, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्ममेहा संजमजोग सन्ती, होम हुणामी इसिणं पसत्थं ।। उत्तरा० । १२.४४ तु०म० पु०। ६७.२०२-२०३ तपो ज्योतिर्जीवो ज्योतिस्थानं, योगाः वः शरीरं करीषांगम् । कर्मधाः संयमयोगाः शान्तिः, होमेन जुहोम्यूषीणां प्रशस्तेन ॥ तप अग्नि है, जीव यज्ञ-कुण्ड है, मन वचन व काय ये तीनों योग सवा है, शरीर करीषांग है, कर्म समिधा है, संयम का व्यापार शान्ति धर्माधिकार ११ १११ उत्तम क्षमा पाठ है। इस प्रकार के पारमार्थिक होम से में अग्नि (आत्मा) को प्रसन्न करता हूँ। ऐसे ही यज्ञ को ऋषियों ने प्रशस्त माना है। ९. उत्तम क्षमा (अक्रोध) २६७. तध रोसेण सयं, पुव्वमेव डज्झदि हु कलकलेणेव । अण्णस्स पुणो दुक्खं, करिज्ज रुट्ठो ण य करिज्जा । भ० आ०।१३६३ तु०- योग शास्त्र । ४.१० तथा रोषेण स्वयं, पूर्वमेव दह्यते हि कलकलेनैव । अन्यस्य पुनः दुक्खं, कुर्यात् रुष्टो च न कुर्यात् ॥ तप्त लौहपिण्ड के समान क्रोधी मनुष्य पहले स्वयं सन्तप्त होता है। तदनन्तर वह दूसरे पुरुष को रुष्ट कर सकेगा या नहीं, यह कोई निश्चित नहीं। नियमपूर्वक किसीको दुखी करना उसके हाथ में नहीं है। २६८. कोहेण जोण तप्पदि, सुरणर तिरिएहि कीरमाणे वि। उवसग्गे वि रउद्दे, तस्स खमा णिम्मला होदि ॥ का० अ०।३९४ तु०- उत्तरा०।२९. सूत्र ३६ क्रोधेन यः न तप्यते, सुरनरतियंग्भिः क्रियमाणे अपि । उपसर्गेऽपि रौद्रे, तस्य क्षमा निर्मला भवति ॥ देव मनुष्य और तिर्यंचों के द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर भी जो मुनि क्रोध से संतप्त नहीं होता, उसके निर्मल क्षमा होती है । २६९. खामेमि सव्वजीवे, सब्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्वभएस. वेरं मझ न केणइ ॥ आवश्यक सूत्र । ४.२२.१, तु० = मू० आ० । (२.८) क्षमयामि सर्वात् जीवान्, सर्वे जीवाः क्षमन्ताम् माम् । मैत्री मे सर्वभतेष, वरं मम न केनचित् ॥ में समस्त जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव भी मुझे क्षमा कर। सबके प्रति मेरा मैत्रीभाव है। आजसे मेरा किसी के साथ कोई वर-विरोध नहीं है । ( इत्याकारक हृदय की जागृति उत्तम क्षमा है।) For Private & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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