Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 65
________________ १०६ धर्माधिकार ११ पूजा-भक्ति सूत्र जैसे भ्रमर फूलों से रस ग्रहण करके अपना निर्वाह करता है, किन्तु फल को किसी प्रकार की भी क्षति पहुँचने नहीं देता, उसी प्रकार साधु भिक्षा-वृत्ति से इस प्रकार अपना निर्वाह करता है जिससे गृहस्थों पर किसी प्रकार का भी भार न पड़े। २५३. अवि सुइयं वा सुकं वा, सीयपिंड पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा, लद्धे पिंडे अलद्धे दविए । आचार । ९.४, गा० १३ तु० -- मू० आ31 ८१४ (८.४९) +र० सा०।११३ अपि सूपिकं वा शुष्कं वा, शीतपिण्डे पुराणकुष्माष । अथ बुक्कसं पुलाकं वा, लब्धे पिण्डं अलब्धः द्रविकः ॥ भिक्षा में प्राप्त भोजन में चाहे घी चूता हो, अथवा रूखा सूखा व ठण्डा हो, वह पुराने उड़दों का हो, अथवा धान्य जौ आदि का बना हो, साधु सबको समान भाव से ग्रहण करते हैं। इसके अतिरिक्त भिक्षा में आहार मिले या न मिले, वे दोनों में समान रहते हैं। २५४. वासीचन्दणसमाणकप्पे, समतिणमणिमुत्तालोठ्ठ कंचणे । समे य माणावमाणणाए, समियरते समिदरागदोसे ॥ प्र० व्या०। २.५.११ तु०प्र० सा० । २४१६२०८ वासीचन्दनसमानकल्पः, समतृणमणिमुक्तालोष्ठकांचनः । समश्च मानापमानयोः शमितरजस्कः शमितरागद्वेषः । कोई कुल्हाड़ी से उनके शरीर को चीर दे अथवा चन्दन से लिप्त कर दे, दोनों के प्रति वे समभाव रखते हैं। इसी प्रकार तृण व मणि म, लोहे व सोने में तथा मान व अपमान में सदा सम रहते हैं। ४. पूजा-भक्ति सूत्र २५५. सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्ति कुणइ सावगो समणो। ___ तस्स दुणिन्बुदि भत्ती, होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ॥ नि० सा०।१३४ तु०- अध्या० सा० । १५.५१ धर्माधिकार ११ १०७ पूजा-भक्ति सूत्र सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु, यो भक्तिं करोति श्रावकः श्रमणः । तस्य तु निवृत्तिभक्तिर्भवतीति जिनः प्रज्ञप्तम् ॥ जो श्रावक (गृहस्थ) अथवा श्रमण (साधु) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की भक्ति करता है, अर्थात् हृदय में इन गुणों के प्रति अत्यन्त बहुमान धारण करता है, उस ही परमार्थतः निर्वाण या मोक्ष की भक्ति होती है। २५६. एया वि सा समत्था, जिणभत्ती दुग्गई णिवारेण । पुण्णाणि य पूरेदु, आसिद्धिपरंपरसुहाणं ।। भ० आ० । ७४६ एकापि सा समर्था, जिनभक्तिः दुर्गति निवारयितुम् । पुण्यान्यपि पूरयितु', आसिद्धिः परम्परासुखानाम् ॥ अकेली जिन-भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है। जब तक साधक को मोक्ष नहीं होता तब तक इसके प्रभाव से बह इन्द्र चक्रवर्ती व तीर्थकर आदि पदों का उत्तमोत्तम सुख भोगता रहता है। २५७. आह गुरु पूयाए, कामवहो होइ जइ वि हु जिणाणं । तह वि तह कायव्वा, परिणामविसुद्धिहेऊओ॥ सावय पण्णत्ति । ३४६ तु० = स्वयंभू स्तोत्र । ५८ आह गुरु पूजायां, कायवधः भवत्येव यद्यपि जिनानाम् । तथापि सा कर्तव्या, परिणामविशुद्धि हेतुत्वात् ॥ यद्यपि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने में कुछ न कुछ हिंसा अवश्य होती है, तथापि परिणाम-विशुद्धि का हेतु होने के कारण वह अवश्य करनी चाहिए, ऐसा गुरु का आदेश है। २५८. आत्तॊ जिज्ञासुरर्थार्थी, ज्ञानी चेतिचतुर्विधाः । उपासकास्त्रयस्तत्र, धन्या वस्तुविशेषतः ।। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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