Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 63
________________ धर्माधिकार ११ १०२ धर्मसूत्र १. धर्मसूत्र २४२. (क) धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाण रक्खणं धम्मो।। का० अ०।४७८ तु०-उत्तरा० । ९.२०-२१ । १३.२३-३३ धर्मः वस्तुस्वभावः, क्षमादिभावः च दशविधः धर्मः । रत्नत्रयं च धर्मः, जीवानां रक्षणं धर्मः॥ वस्तु का स्वभाव धर्म है। (प्रकृत में समता आत्मा का स्वभाव होने से वह उसका धर्म है।) उत्तम क्षमा आदि दश', सम्यग्दर्शनादि तीन' तथा जीवों की रक्षा (उपलक्षण से अहिंसा आदि पाँच तथा अन्य भी पूर्वोक्त संयम के अंग) ये सब धर्म है अर्थात् उस समतामयी स्वभाव के विविध अंग या लिंग है। २४२. (ख) उत्तमखममद्दवज्जव, सच्चसउच्चं च संजमं चेव । तवतागमकिंचण्हं, बम्हा इदि दसविहो धम्मो॥ तु० = समवायांग । १०.१ उत्तमक्षमामार्दवार्जव-सत्यशौचं च संयमः चैव । तपस्त्यागं आकिंचन्य, ब्रह्म इति दशविधः धर्मः ॥ उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिचन्य और ब्रह्मचर्य इस प्रकार धर्म दशविध कहा गया है। २४३. अन्तस्तत्त्व विशुद्धात्मा, बहिस्तत्त्वं दयांगिषु । द्वयोः सन्मीलने मोक्षस्तस्माद्वितीयमाश्रयेत् ।। पं० वि। ६.६० अन्तस्तत्व रूप समतास्वभावी विशुद्धात्मा तो साध्य है और प्राणियों की दया आदि बहिस्तत्त्व उसके साधन हैं। दोनों के मिलने पर ही मोक्ष होता है। इसलिए अपरम भावी को धर्म के इन विविध अंगों का आश्रय अवश्य लेना चाहिए। १. दे० गा० ११७२ . दे० गा० २६७-२८५३ , ३० गा० २० ४. विशेष दे० गा०३२-४२ धर्माधिकार ११ धर्मसूत्र २४४. सद्धं णगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं । खंति णिउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं ॥ उत्तरा०।९.२० तु०- बो० पा०।२७ श्रद्धां नगरं कृत्वा, तपः संवरमर्गलम् । क्षान्ति निपुणप्राकारं, त्रिगुप्तयं दुष्प्रर्षिकम् ॥ श्रद्धा या सम्यक्त्व रूपी नगर में क्षमादि दश धर्म रूप किला बनाकर, उसमें तप व संयम रूपी अर्गला लगायें और तीन गप्ति रूप शस्त्रों द्वारा दुर्जय कर्म-शत्रुओं को जीतें। २४५. दाणं पूजा सील, उववासं बहुविहं पि खवणं पि । __सम्मजुदं मोक्खसुहं, सम्मविणा दीहसंसारं ।। र० सा०।१० तु० = पिण्ड नियुक्ति । ९१ दानं पूजा शील, उपवासः बहुविधमपि क्षपणमपि । सम्यक्त्वयुक्तं मोक्षसुखं, सम्यक्त्वेन विना दीर्घसंसारे ॥ दान, पूजा, ब्रहाचर्य, उपवास, अनेक प्रकार के व्रत और मुनि लिंग आदि सब एक सम्यग्दर्शन होने पर तो मोक्ष-सुख के कारण हैं और सम्यक्त्व के बिना दीर्घ-संसार के कारण हैं।' २४६. यद्यत्स्वानिष्टं, तत्तद्वाकचित्तकर्मभिः कार्यम् । स्वप्नेऽपि नो परेषामिति धर्मस्याग्रिमं लिंगम् ।। ज्ञानार्णव । २. १०.२१ धर्म का यह सर्व प्रधान लिंग है कि जो जो कार्य अपने को अनिष्ट हो, वह दूसरों के प्रति मन से या वचन से या शरीर से स्वप्न में भी न कर। २४७. दुविहं संजमचरणं, सायारं तह हवे णिराया। सायारं सग्गथे, परिग्गहा-रहिय खलु णिरायारं ।। चा०पा०।२० तु०-औपपा० सुत्त । १.५७ बा०अ०। ७० १.३० गा० ३२४-३२५ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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