Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 62
________________ १०० सल्लेखना अधिकार १० सातत्य योग एवं धामण्यं साघुरपि करोति नित्यमपि योगपरिकर्म । ततः जितकरणः मरणे ध्याने समर्थो भविष्यतीति । जिस प्रकार कोई राजपुत्र शस्त्र-विद्या की साधनभूत सामग्री का नित्य अभ्यास करते रहने से शस्त्र-विद्या में निपुण होकर, युद्ध के समय शत्रु को परास्त करने में समर्थ हो जाता है। उसी प्रकार साधु भी जीवन पर्यन्त नित्य ही संयम व तप आदि का अभ्यास करते रहने से समता-मार्ग में निपुण होकर, मरण के समय ध्याननिष्ठ होने के योग्य हो जाता है। :११: धर्म अधिकार ( मोक्ष संन्यास योग) 'धर्म' शब्द स्वभाववाची है, अतः आत्मा का पूर्वोक्त समता स्वभाव ही उसका धर्म है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य, ये दश इसके लिंग हैं। गृहस्थ के लिए पूर्वोक्त द्वादश व्रत तथा दया दान पूजा आदि, और साधु के लिए व्रत समिति गप्ति आदि समता स्वभाव को प्राप्त करने के साधन हैं। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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