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सरलेखना-मरण-अधिकार
(सातत्य योग) जीना ही नहीं, मरना भी एक कला है। 'अन्त मति सो गति' उक्ति प्रसिद्ध है। जब मृत्यु निश्चित ही है तो क्यो न इस तरह मरा जाय कि मृत्यु की ही मृत्यु हो जाय । इससे पहले कि मृत्यु आँखें दिखाये, योगी स्वयं ही कषाय व आहारादि को क्षीण करके देह का समतापूर्वक त्याग कर देते हैं। परन्तु ऐसा करने के लिए समस्त जीवन की साधना अपेक्षित है।
सल्लेखना अधिकार १०
आदर्श मरण १: आदर्श मरण २३२. धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्स मरियव्वं । तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे मरिउं ।।
मरण समा०।३२१ धीरेणापि मर्त्तव्यं, कापुरुषेणाप्यवश्य मर्तव्यं ।
तस्मादवश्यमरणे वरं खलु धीरत्वेन मर्तुम् ॥ क्या धीर और क्या कापुरुष, सबको ही अवश्य मरना है। इसलिए धीर-मरण ही क्यों न मरा जाये। २३३. इक्कं पंडियमरणं, पडिवज्जइ सुपुरिसो असंभंतो।
खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं ।। मरण समा० । २८०
तु० - मू० आ० । ७७ (२.६४) एक पण्डितमरणं, प्रतिपद्यते सुपुरुषः असंभ्रान्तः । क्षिप्रं सः मरणानां, करोत्यन्तमनन्तानाम् ॥
सम्यग्दृष्टि पुरुष एकमात्र पण्डित-मरण का ही प्रतिपादन करते है, क्योंकि वह शीघ्र ही अनन्त मरणों का अन्त कर देता है। २३४, चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किंचि पास इह मण्णमाणो। ___लाभंतरे जीविय बहइत्ता, पच्छा परिण्णाय मलावधंसी।। उत्तरा०। ४.७
तु० भ० आ०।७१-७४ चरेत् पदानि परिशंकमानः, यत्किंचित्पाशं इह मन्यमानः । लाभान्तरे जीवितं बृहयिता, पश्चात् परिज्ञाय मलावध्वंसी।
योगी को चाहिए कि वह चारित्र में दोष लगने के प्रति सतत् शंकित रहे, और लोक के थोड़े से भी परिचय को बन्धन मानकर स्वतंत्र विचरे। जब तक रत्नत्रय के लाभ की किचिन्मात्र भी सम्भावना हो तब तक जीने को बुद्धि रखे अर्थात् शरीर की सावधानी से रक्षा करे, और जब ऐसी आशा न रह जाय, तब इस शरीर को ज्ञान व विवेकपूर्वक त्याग दे।
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