Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 58
________________ तप व ध्यान अधि० ९ ९२ ७. वैयावृत्त्य तप ( सेवा योग ) २१९. सेज्जागासणिसेज्जा - उवधीपडिलेहणा उवग्गहिदे । आहारो सहवायण, विकिंचणुव्वत्तणादीसु ॥ २२०. उद्घाण तेण सावयरायणदीरोधगासिवे ऊमे । वेज्जावच्चं उत्तं, संगहणारक्खणोवेदं ॥ भ० आ०३०५-३०६ तु० उत्तरा० । ३०.३३ वैयावृत्त्य तप शय्यावकाशनिषद्योपधि- प्रति लेखनोपग्रहः । आहारौषध बाचना किचनोद्वर्तनादिषु ॥ अध्वानस्तेन श्वापद-राज-नदी रोधकाशिवे दुर्भिक्षे । वैय्यावृत्त्ययुक्तं संग्रहणारक्षणोपेतम् । ( इन दो गाथाओं में गुरु-सेवा के विविध लिंगों का कथन है।) वृद्ध व ग्लान गुरु या अन्य साधुओं के लिए सोने व बैठने का स्थान ठीक करना, उनके उपकरणों का शोधन करना, निर्दोष आहार व औषध आदि देकर उनका उपकार करना, उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें शास्त्र पढ़कर सुनाना, अशक्त हों तो उनका मैला उठाना, उन्हें करवट दिलाना, सहारा देकर बैठाना आदि । थके हुए साधु के हाथ-पाँव आदि दबाना, नदी से रुके हुए अथवा रोग से पीड़ित साधुओं के उपद्रव यथासम्भव मंत्र-विद्या व औषध आदि के द्वारा दूर करना, दुर्भिक्ष पीड़ित को सुभिक्ष देश में ले जाना आदि सभी कार्य वैयावृत्त्य कहलाते हैं। २२१. गुणपरिणाम सड्ढा, वच्छल्लं भत्तीपत्तलंभो य । संघाण तव पूया, अव्वोच्छित्ती समाधी य ॥ म० आ । ३०९ गुणपरिणामः श्रद्धा, वात्सल्यं भक्तिः पात्रलम्भश्च । सन्धानं तपः पूजा, अव्युच्छित्तिः समाधिश्च ॥ Jain Education International वृत्तप में अनेक सद्गुणों का वास है अथवा इससे अनेक सद्गुणों की प्राप्ति होती है। यथा--गुणग्राह्यता, श्रद्धा, भक्ति, तप व ध्यान अधि० ९ ९३ ध्यान-समाधि सूत्र वात्सल्य, सपात्र की प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्वादि गुणों का पुनः संधान, तप, पूजा, तीर्थ की अव्युच्छित्ति, समाधि आदि । ८. स्वाध्याय तप २२२. पूयादिसु णिरवेक्खो, जिणसत्थं जो पढेइ भत्तीए । कम्ममलसोहण, सुयलाहो सहयरो तस्स ॥ का० अ० । ४६२ पूजादिषु निरपेक्षः, जिनशास्त्रं यः पठति भक्तया । कर्म मलशोधनार्थं, श्रुतलाभः सुखकरः तस्य ॥ पूजा-प्रतिष्ठा आदि की चाह से निरपेक्ष, जो योगी बहुमान व भक्ति भाव से अथवा केवल कर्म मल का शोधन करने की भावना से शास्त्रों का पठन व मनन आदि करता है, उसके लिए श्रुत या ज्ञान का लाभ अत्यन्त सुलभ हो जाता है। २२३. बारसविहम्मि वि तवे, अभितर बाहिरे कुसलदिट्ठे । नवि अत्थि नवि य होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥ मरण समा० । १२९ भ० आ० । १०७ द्वादशविधेऽपि तपसि साभ्यन्तरबाह्ये कुशलदृष्टे । नैवास्ति नापि च भविष्यति, स्वाध्यायसमं तपः कर्म ॥ उपरोक्त बारह प्रकार के वाह्याभ्यन्तर तपों में स्वाध्याय के समान तपोकर्म न तो है और न कभी होगा। ९. ध्यान-समाधि सूत्र २२४. सुचिए समे विचित्ते, देसे णिज्जंतुए अणुणाए । उज्जुअआयददेहो, अचलं बंधेत्तु पलिअंक ॥ भ० आ० | २०८९ तु० = अध्या० सा० । १५.८१-८२ शुचिके समे विचित्ते, देशे निर्जन्तुकेऽनुज्ञाते । ऋजुकायत बेहोऽचलं, बद्धवा पल्यंकम् ॥ पवित्र, सम, निर्जन्तुक तथा स्वामी अथवा देवता आदि से जिसके लिए अनुज्ञा ले ली गयी हो, ऐसे स्थान में, शरीर व कमर को सीधा रखते हुए निश्चल पर्यकासन बाँध कर ध्यान किया जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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