Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

Previous | Next

Page 57
________________ Jain Education तप व ध्यान अधि० ९ ९० क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां प्रायश्चित्तं भणितं निजगुणचिन्ता च [ मन वचन काय के द्वारा व्यक्ति को नित्य ही जो छोटे बड़े दोष लगते रहते हैं, उनके शोधनार्थं प्रायश्चित्त महा औषधि है ।] क्रोधादि रूप स्वकीय दोषों के क्षय की भावना तथा ज्ञान दर्शन आदि निज पारमार्थिक गुणों का चिन्तन करते रहना निश्चय प्रायश्चित्त तप कहलाता है । निर्ग्रहणम् । निश्चयतः ॥ २१४. आलोयणारिहाईयं, पायच्छित्तं तु दसविहं । जे भिक्खू वहई सम्मं, पायच्छित्तं तमाहियं ॥ तु० मू० आ० । ३६१-३६२* उत्तरा० । ३०.३१ आलोचनार्हादिकं प्रायश्चित्तं तु दशविधम् । यद् भिक्षुर्वहति सम्यक्, प्रायश्चित्तं तदाख्यातम् ॥ प्रायश्चित्त तप प्रकाशनात्संवरणाच्च अपने दोषों के शोधनार्थ जो भिक्षु गुरु के समक्ष दोषों की निष्कपट आलोचना करता है, और गुरुप्रदत्त दण्ड को सविनय अंगीकार करता है, अथवा प्रायश्चित्त के शास्त्रोक्त दश भेदों का सम्यक्रीत्या पालन करता है, उसको प्रायश्चित्त नामक तप होता है। २१५. कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि, तनू भवन्त्यात्मविगर्हणेन । तेषामत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि ॥ १. मू० आ०। (५.१८४ - १८५ ) घ० १३ । गा० १० तु० = उत्तरा० । २९.५-७, १६ अपनी निन्दा व गर्दा करने से तथा गुरु के समक्ष दोषों का प्रकाशन करने मात्र से किये गये अति दारुण कर्म भी कृश हो जाते हैं। तप व ध्यान अधि० ९ ६. विनय तप २१६. अब्भुट्ठाणं उत्तरा० १३०-३२ अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं । गुरुभत्ति भावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ।। ९१ तु०भ० आ०। ११९ अभ्युत्थान मंजलिकरणं, तथैवासनदानम् । गुरुभक्तिभावसुश्रूषा, विनय एष व्याख्यातः ॥ गुरुजनों के आने पर खड़े हो जाना, हाथ जोड़ना, उन्हें बैठने के लिए उच्चासन देना, उनकी भक्ति तथा भावसहित सेवा सुश्रूषा करना, ये सब विनय नामक आभ्यन्तर तप के लिंग हैं। भ० आ० । १२९ विनय तप २१७. विणओ मोक्खद्दारं, विणयादो संजमो तवो णाणं । विणएणाराहिज्जइ, आयरिओ सव्वसंघो य ॥ तु० दश वै० । ९.२.१-२ विनयो मोक्षद्वारं, विनयात् संयमः तपः ज्ञानम् । विनयेनाराध्यते, आचार्य: सर्वसंघश्च ॥ For Private & Personal Use Only विनय मोक्ष का द्वार है, क्योंकि इससे संयम, तप व ज्ञान की सिद्धि होती है और आचार्य व संघ की सेवा होती है। २१८. दंसणणाणे विणओ, चरित तव ओवचारिओ विणओ । पंचविहो खलु विणओ, पंचमगइणायगो भणिओ ॥ मू० आ० । ३६४ (५.१८७ ) दर्शनज्ञाने विनयश्चारित्रतप औपचारिको विनयः । पंचविधः खल विनयः, पंचमगतिनायको भणितः ॥ विनय पांच प्रकार की होती है-दर्शन- विनय, ज्ञान-विनय चारित्र-विनय, तप- विनय और उपचार - विनय । [ तहाँ दर्शन आदि पारमार्थिक गुणों के प्रति बहुमान का होना प्रधान, निश्चय या मौलिक विनय है। गुरुजनों, गुणीजनों व वृद्धजनों के प्रति यथायोग्य विनय का होना उसकी साधनभूत उपचार या व्यवहार - विनय है ।] www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112