Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 55
________________ तप व ध्यान अधि०९ तपोग्नि-सूत्र १. तपोग्नि-सूत्र २०३. विसयकसायविणिग्गहभावं, काऊण झाणसज्झाए । जो भावइ अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ।। बा० अणु०। ७७ तु०- अध्या० सा० । १८.१५६ विषयकषायविनिग्रहभावं, कृत्वा ध्यानस्वाध्यायै। यः भावयति आत्मानं, तस्य तपः भवति नियमेन ॥ पाँचों इन्द्रियों को विषयों से रोककर और चारों कषायों का निग्रह करके, ध्यान व स्वाध्याय के द्वारा जो निजात्मा की भावना करता है, उसको नियम से तप होता है। २०४. अज्झवसाणविसुद्धीए, वज्जिदा जं तवं विगळंपि। कुव्वंति बहिल्लेस्सा, ण होइ सा केवली सुद्धी ॥ भ० आ० । २५७ तु० = अध्या० सा० । १८.१५७ अध्यवसानविशुद्धया, वजिता ये तपः उत्कृष्टमपि। कुर्वन्ति बहिर्लेश्याः, न भवति सा केवला शुद्धिः॥ परिणामों की शुद्धि से रहित तथा पूजा और सत्कार आदि में अनुरक्त जो (साधु) उत्कृष्ट भी तप करते हैं, उनके निर्दोष शुद्धि नहीं पायी जाती। २०५. नाणमयवायसहिओ, सोलुज्जलिओ तवो मओ अग्गी। संसारकरणबीयं, दहइ दवग्गी व तणरासि ।। मरण समाधि । ६२८ तु० - म० आ०।१४७२ ज्ञानमयवातसहितं, शोलोज्ज्वलं तपो मतोऽग्निः । संसारकरणबीजं, दहति दवाग्निरिव तृणराशिम् ॥ ज्ञानमयी वायु से राहित शील द्वारा प्रज्वलित की गयी तप रूपी अग्नि संसार के कारण व बीजभूत कर्म-राशि को इस प्रकार भस्म कर देती है, जिस प्रकार वायु के वेग से प्रचण्ड दावाग्नि तृणराशि को भस्म कर देती है। तप व ध्यान अधि०९ अनशनादि तप २०६. जं अन्नाणी कम्म, खवेहि बहुआहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ उस्सासमित्तेण ॥ महा० प्रत्या०। १०१ प्र० सा०।२३८ यं अज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः। तज्ज्ञानी विभिगुप्तः, क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण ॥ [परन्तु अज्ञानी व ज्ञानी के तप में आकाश-पाताल का अन्तर है] अज्ञानी जितने कर्म अनेक कोटि वर्षों में खपाता है, उतने कर्म ज्ञानी मन वचन काय के गोपन द्वारा एक उच्छ्वास मात्र में खपा देता है। २०७. तस्माद्वीर्य समुद्रेकादिच्छारोधस्तपो विदुः । ____ बाह्य वाक्कायसम्भूतमान्तरं मानसं स्मृतम् ।। मोक्ष पंचाशत । ४८ तु०- उत्तरा०।३०.७ ___ आत्म-बल का उद्रेक हो जाने के कारण योगी की समस्त इच्छाएँ निरुद्ध हो जाती हैं। उसे ही परमार्थतः तप जानना चाहिए। वह दो प्रकार का होता है-बाह्य व आभ्यन्तर । कायिक व वाचसिक तप बाह्य है और मानसिक आभ्यन्तर। २. अनशन आदि तप २०८. सो नाम अणसणतवो, जेण मणो अमंगलं न चितेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ।। मरण समा०।१३४ तु० = का० अ०४४०-४४१ तन्नाम अनशनतपो, येन मनोऽमंगलं न चिन्तयति। येन नेन्द्रियहानियेन च योगा न हीयन्ते ॥ सच्चा अनशन तप वह है, जिसमें मन किसी प्रकार के अमंगल का चिन्तवन न करे, जिसमें इन्द्रियों की शक्ति क्षीण न हो और जिसमें योग या साधना में किसी प्रकार की हानि न हो। १. बाह्य तप छह प्रकार का है- अनशन, उनोदर, वृत्ति परिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त देश सेवित्व तथा काय-क्लेश । इनका कथन आगे क्रम से किया गया है। २. आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है-प्रायश्चित, विनय, वयवृत्या (सेवा), कायोत्सर्ग, खाध्याय व ध्यान । इनका भी कथन आगे क्रम से किया जायेगा। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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